Here is an essay on ‘Wages’ for class 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Wages’ especially written for school and college students in Hindi language.

Essay on Wages


Essay Contents:

  1. मजदूरी की परिभाषाएँ (Definition of Wages)
  2. मजदूरी के प्रकार (Types of Wages)
  3. वास्तविक मजदूरी को निर्धारित करने वाले तत्व (Factors Determining of Real Wages)
  4. सामूहिक सौदेबाजी एवं मजदूरी (Collective Bargaining and Wages)
  5. मजदूरी में भिन्नता (Difference in Wages)


Essay # 1. मजदूरी की परिभाषाएँ (Definition of Wages):

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मजदूरी वह पुरस्कार है जो उन श्रमिकों को दिया जाता है जो वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन में किसी प्रकार का श्रम करते हैं । मजदूरी राष्ट्रीय लाभांश का वह भाग होता है जो श्रमिक को उसके श्रम के बदले में दिया जाता है । इस प्रकार मजदूरी शारीरिक या मानसिक श्रम के लिए भुगतान है ।

(i) प्रो. मैक्कॉनल के अनुसार, ”श्रम के उपयोग के लिए चुकायी गयी कीमत को मजदूरी या मजदूरी दर कहते हैं ।”

(ii) प्रो. बेन्हम के अनुसार, ”मजदूरी मुद्रा की उस राशि को कहा जाता है जो एक मालिक किसी श्रमिक को एक समझौते के अनुसार उसकी सेवाओं के लिए देता है ।”

कोई भी कार्य चाहे शारीरिक हो या मानसिक यदि वह आंशिक रूप से अथवा पूर्ण रूप से मौद्रिक भुगतान के लिए किया जाय तो उसे श्रम कहते हैं । श्रम के लिए श्रमिक को प्राप्त होने वाला पुरस्कार मजदूरी कहलाता है । मजदूरी शब्द का अर्थशास्त्र में व्यापक अर्थ होता है । इसमें प्रति घण्टा, प्रति दिन, प्रति सप्ता, प्रति माह दिया जाने वाला भुगतान, डॉक्टर, वकील या अध्यापक की फीस, घर के नौकर को दिया जाने वाला भुगतान आदि शामिल होता है ।

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मजदूरी देने के दो तरीके हैं:

(1) समयानुसार मजदूरी (Time Wages):

एक निश्चित समय के लिए श्रमिकों को जो भुगतान दिया जाता है तो उसे समयानुसार मजदूरी कहा जाता है । जैसे – प्रति घण्टा, प्रति दिन, प्रति सप्ताह अथवा प्रति माह आदि ।

(2) कार्यानुसार मजदूरी (Piece Wages):

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जब श्रमिकों के कार्य के आकार या गुण के अनुसार मजदूरी दी जाती है तो उसे कार्यानुसार मजदूरी कहते हैं । उदाहरण के लिए, यदि एक कुर्सी बनाने के लिए बढ़ई को Rs. 15 दिये जायें तो वह कार्य मजदूरी (Piece Wage) कही जायेगी चाहे बढ़ई कुर्सी एक दिन में बनाये अथवा सप्ताह में इससे मजदूरी का कोई सम्बन्ध नहीं होता ।


Essay # 2. मजदूरी के प्रकार (Types of Wages):

A. नकद मजदूरी (Nominal Wages):

यह वह मजदूरी होती है जिसे श्रमिक को एक निश्चित समयावधि के लिए मुद्रा (Money) में चुकाया जाता है । समयावधि घण्टा, दिन, सप्ताह, मास आदि कुछ भी हो सकती है । नकद मजदूरी मुद्रा की वह मात्रा है जो एक श्रमिक को समय के हिसाब से दी जाती है ।

उदाहरण के लिए, बैंक में काम करने वाले लिपिक को Rs. 6,000 मासिक वेतन नकद मजदूरी के रूप में मिलता है और एक मकान बनाने वाले मजदूर को Rs. 20 प्रतिदिन नकद मजदूरी दी जाती है ।

B. वास्तविक मजदूरी या असल मजदूरी (Real Wages):

वास्तविक मजदूरी या असल मजदूरी से अभिप्राय वस्तुओं एवं सेवाओं की उस मात्रा से है जो एक व्यक्ति अपनी नकद मजदूरी द्वारा खरीद सकता है । वास्तविक मजदूरी में केवल नकद मजदूरी से खरीदी जाने वाली वस्तुएँ और सेवाएँ ही नहीं आतीं बल्कि वे सभी सुविधाएँ एवं प्रासंगिक लाभ (Incidental Gains) भी वास्तविक मजदूरी में सम्मिलित किये जाते हैं जो श्रमिक को नकद मजदूरी के अलावा प्राप्त होते है ।

दूसरे शब्दों में, ”किसी श्रमिक की वास्तविक मजदूरी में वे सभी लाभ, सुविधाएँ शामिल होती हैं जो उसे नकद मजदूरी के अलावा प्राप्त होते हैं ।” श्रमिकों को नकद मजदूरी के अलावा कई दशाओं में कुछ सुविधाएँ भी मिलती हैं, जैसे – सस्ता मकान, निःशुल्क चिकित्सा, बच्चों के लिए निःशुल्क अथवा सस्ती दर पर शिक्षा व्यवस्था, मनोरंजन की सुविधाएँ आदि ।

ये सभी सुविधाएँ श्रमिक के रहन-सहन के स्तर को निर्धारित करती हैं । इसी कारण इन्हें वास्तविक मजदूरी में शमिल करते हैं । एक श्रमिक अपनी नकद मजदूरी के बदले में वस्तुओं और सेवाओं की जितनी मात्रा प्राप्त कर सकता है वही उसकी वास्तविक मजदूरी है ।


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Essay # 3. वास्तविक मजदूरी को निर्धारित करने वाले तत्व (Factors Determining of Real Wages):

वास्तविक मजदूरी को निर्धारित करने वाले तत्व निम्नलिखित हैं:

(1) मुद्रा की क्रय-शक्ति (Purchasing Power of Money):

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वास्तविक मजदूरी की गणना करते समय हमें दो बातें देखनी होती हैं:

(i) नकद मजदूरी की मात्रा और

(ii) सामान्य कीमत-स्तर ।

वास्तविक मजदूरी = P/W, जहाँ W नकद मजदूरी और P सामान्य कीमत-स्तर है । 1/P को मुद्रा की क्रय-शक्ति भी कहते हैं । अतः वास्तविक मजदूरी ज्ञात करने के लिए हमें नकद मजदूरी में मुद्रा की क्रय-शक्ति का गुणा कर देना चाहिए ।

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(2) अतिरिक्त आय (Extra Income):

वास्तविक मजदूरी ज्ञात करते समय हमें श्रमिक की अतिरिक्त आय और अतिरिक्त आय के अवसर अवश्य देखने चाहिए । एक बैंक अधिकारी की नकद मजदूरी अधिक हो सकती है परन्तु कॉलेज के अध्यापक के लिए अतिरिक्त आय के अवसर अधिक हैं । उदाहरण के लिए, अध्यापक ट्‌यूशन पढ़ाकर, किताब लिखकर, उत्तर-पुस्तिकाओं का मूल्यांकन कर आदि अनेक साधनों द्वारा अतिरिक्त आय प्राप्त कर सकता है ।

(3) मजदूरी के अलावा अन्य सुविधाएँ (Other Facilities in Addition to Wages):

कुछ व्यवसायों में श्रमिकों को नकद मजदूरी के अलावा कुछ अन्य सुविधाएँ भी दी जाती हैं, जैसे – सस्ती दर पर अथवा निःशुल्क मकान, अनाज, चिकित्सा सुविधाएँ, बच्चों की शिक्षा आदि । जिन श्रमिकों को ये सुविधाएँ दी जाती हैं उनकी वास्तविक मजदूरी अधिक होती है ।

(4) काम के घण्टे (Hours of Work):

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दो श्रमिक समान कार्य की दशाओं में समान नकद मजदूरी दर पर कार्य करते हैं परन्तु उनमें से पहले श्रमिक के कार्य करने के घण्टे कम हैं और दूसरे श्रमिक के कार्य करने के घण्टे अधिक हैं । ऐसी दशा में पहले श्रमिक की वास्तविक मजदूरी अधिक होगी । प्रायः यह कहा जाता है कि अध्यापकों के कार्य करने के घण्टे कम होते हैं इस कारण उनकी वास्तविक मजदूरी अधिक होती है ।

(5) कार्य की दशाएँ (Conditions of Work):

वास्तविक मजदूरी कार्य करने की दशाओं से प्रभावित होती है । एक कारखाने में श्रमिकों को स्वच्छ एवं स्वस्थ वातावरण में काम करने को कहा जाता है ।

वेतन समय पर एवं सम्मान के साथ दिया जाता है, प्रकाश की उचित व्यवस्था है, दुर्घटना से बचाव के पूरे साधन उपलब्ध हैं, आवश्यक काम करने के बाद विश्राम का समय दिया जाता है, सस्ती दर पर जलपान आदि की व्यवस्था है, वेतन सहित छुट्टियाँ मिलती हैं, श्रम-कल्याण की दृष्टि से सरकारी कानूनों का पालन किया जाता है, मनोरंजन के साधन जुटाये जाते हैं आदि ।

स्पष्ट है कि ऐसी दशा में कारखाने में काम करने वाले श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी अधिक होगी ।

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(6) रोजगार की प्रकृति (Nature of Employment):

नियमित रूप से कार्य में लगे श्रमिक की मजदूरी निश्चित रूप से एक अस्थायी श्रमिक की अपेक्षा अधिक होगी । जिन व्यवसायों में आश्रितों को भी रोजगार मिल जाता है वहाँ वास्तविक मजदूरी और भी अधिक होगी । रेलवे, बैंक, पोस्ट ऑफिस आदि में कर्मचारियों के आश्रितों को भी रोजगार दिया जाता है । अतः उनकी वास्तविक मजदूरी अधिक होगी ।

(7) भविष्य में उन्नति की आशा (Future Prospects):

जिन व्यवसायों में भविष्य में उन्नति के अवसर अधिक होते हैं उनमें वास्तविक मजदूरी अधिक होती है । प्रायः कॉलेजों में अध्यापक जिस पद पर नियुक्त होते हैं उसी पद पर अवकाश ग्रहण कर लेते हैं जबकि बैंक आदि में यदि कर्मचारी गतिशील हों तो वह कई पदोन्नति प्राप्त करके अवकाश ग्रहण करता है ।

(8) पुरस्कार के बिना अतिरिक्त कार्य (Extra Work without Remuneration):

जिन व्यवसायों में व्यक्ति नियमित काम के घण्टों के अलावा भी कार्य करता है और उसे कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता उस दशा में वास्तविक मजदूरी कम होती है । प्रायः असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों के साथ ऐसा व्यावहारिक जीवन में होता है । दुकानों पर काम करने वाले नौकरों से मालिक घर का काम भी लेते हैं ।

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(9) काम की प्रियता (Pleasantness of Work):

‘सौ के दस कर दे नाम दरोगा रख दे’ यह कहावत तो प्रसिद्ध है । अतः जिन व्यवसायों में प्रतिष्ठा अधिक और जोखिम कम हो वहाँ वास्तविक मजदूरी अधिक होगी । बगीचे में काम करने वाले माली की वास्तविक मजदूरी रेलवे इंजन में कोयला झोंकने वाले की मजदूरी से अधिक होगी ।

(10) प्रशिक्षण समय व लगात (Training Period and Cost):

कुछ व्यवसायों में प्रशिक्षण समय व लागत बहुत अधिक लगती है, जैसे – डॉक्टर, इन्जीनियर आदि की सेवाएँ । इन कामों को सीखने में समय और लागत दोनों अधिक लगते हैं इसी कारण इनकी वास्तविक मजदूरी कम होती है ।

(11) व्यवसाय सम्बन्धी व्यय (Trade Expenses):

कुछ व्यवसायों में कार्य कुशलतापूर्वक करने के लिए व्यवसाय सम्बन्धी व्यय बहुत अधिक मात्रा में करना पड़ता है । अन्य विषयों के प्राध्यापकों की अपेक्षा अर्थशास्त्र के प्राध्यापक को इस दृष्टि से अधिक व्यय करना पड़ता है यदि वह तथ्यों की नवीनतम जानकारी रखना चाहे तो उसे अर्थशास्त्र की मासिक पत्र-पत्रिकाओं को संकलित करना पड़ेगा ।

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इस प्रकार हम कह सकते हैं कि श्रमिक की वास्तविक मजदूरी बहुत-से तथ्यों पर निर्भर करती है ।

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एडम स्मिथ ने नकद तथा वास्तविक मजदूरी के अन्तर को स्पष्ट करते हुए कहा है, ”श्रमिक की वास्तविक मजदूरी का अर्थ जीवन की अनिवार्यताओं की वह मात्रा है जो उसे उसके श्रम के बदले प्रदान की जाती है जबकि नकद मजदूरी मुद्रा की मात्रा के रूप में दी जाती है । एक श्रमिक को पारिश्रमिक अचित मिल रहा है अथवा अनुचित मिल रहा है या श्रमिक धनी है अथवा निर्धन यह तथ्य श्रमिक की वास्तविक मजदूरी से पता लगाते हैं, उसकी नकद मजदूरी से पता नहीं लगाते ।”

वास्तव में, श्रमिक के जीवन-स्तर का पता उसकी वास्तविक मजदूरी द्वारा ही लगता है ।

जहाँ Wm श्रमिकों की नकद मजदूरी और P सामान्य कीमत-स्तर है ।


Essay # 4. सामूहिक सौदेबाजी एवं मजदूरी (Collective Bargaining and Wages):

मजदूरी निर्धारण में कार्ल मार्क्स (Karl Marx), सिडनी (Sidney), बैब (Webb) आदि अर्थशास्त्रियों ने श्रम संघ एवं उनके द्वारा की जाने वाली सामूहिक सौदेबाजी को विशेष महत्त्व दिया है । वर्तमान समय में मजदूरों की मजदूरी एवं अन्य सुविधाओं के सन्दर्भ में सामूहिक सौदेबाजी मजदूरी निर्धारण प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग बन चुकी है ।

सामूहिक सौदेबाजी का अर्थ (Meaning of Collective Bargaining) – ”जब मजदूर श्रम-संघ के रूप में संगठित होकर सेवायोजकों (Employers) से अपनी मजदूरी वृद्धि एवं अन्य सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए मोलभाव करते हैं, तब इसे सामूहिक सौदेबाजी कहा जाता है ।”

प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने सामूहिक सौदेबाजी के महत्व को स्वीकार नहीं किया किन्तु आधुनिक अर्थशास्त्री मजदूरी निर्धारण में श्रमिक संघों की सकारात्मक भूमिका को स्वीकार करते हैं ।

श्रमिकों की बेरोजगारी एवं निम्न आर्थिक स्तर के कारण श्रमिकों की सौदा करने की शक्ति नियोजकों (Employers) की तुलना में अपेक्षाकृत इम होती है जिसके कारण नियोजक वर्ग श्रमिकों को उनकी सीमान्त उत्पादकता से भी कम मजदूरी देकर शोषित करने में सफल हो जाता है ।

श्रमिक संघ ऐसी परिस्थितियों में श्रमिकों को संगठित करके श्रमिकों की सामूहिक सौदेबाजी (Collective Bargaining) में वृद्धि करके नियोजकों को श्रमिकों की सीमान्त उत्पादकता के बराबर मजदूरी देने को बाध्य कर सकते हैं और मजदूरी में स्थायी वृद्धि हो सकती है ।

दूसरे, श्रमिक संघ नियोजकों द्वारा आधुनिकीकृत उत्पादन प्रक्रिया अपनाकर व्यापारिक संगठन को अधिक सुव्यवस्थित कराकर तथा स्वयं श्रमिकों में शिक्षा एवं कल्याणकारी कार्यों का प्रसार करके उनकी कार्य-कुशलता में वृद्धि कर सकते हैं । तीसरे, श्रमिक संघ किसी विशेष व्यवसाय में भी श्रमिकों की पूर्ति सीमित करके उनकी मजदूरी बढ़ा सकते हैं ।

ऐसा प्रयत्न श्रमिक संघों द्वारा निम्नलिखित दशाओं में किया जा सकता है:

(i) यदि वस्तु का उत्पादन श्रम गहन हो और उसे किसी अन्य साधन से उत्पादित न किया जा सके ।

(ii) उत्पादित वस्तु की माँग बेलोचदार हो अर्थात् वस्तु की कीमत वृद्धि से वस्तु की माँग अप्रभावित रहे ।

(iii) उत्पत्ति के अन्य साधनों की पूर्ति सीमित न हो ।

(iv) यदि श्रमिकों की मजदूरी का बिल उत्पादक के कुल मजदूरी बिल का एक बहुत छोटा भाग हो जिससे कि मजदूरी अधिक देने पर भी वस्तु की कीमत में अधिक वृद्धि न हो ।

व्यावहारिकता में श्रमिक संघ उपर्युक्त उपायों से श्रमिकों की केवल मौद्रिक मजदूरी में ही वृद्धि नहीं करते बल्कि श्रमिकों की जीवन-दशाओं में सुधार करके तथा समय-समय पर श्रमिकों को विविध लाभ सुविधाएँ दिलवाकर उनकी वास्तविक मजदूरी (Real Wage) में भो वृद्धि करते हैं । श्रमिक की कार्यक्षमता का मजदूरी पर जो प्रभाव पड़ता है उसे चित्र 4 में प्रदर्शित किया गया है ।

चित्र 4 में श्रमिक की प्रारम्भिक सीमान्त आय उत्पादकता MRP है । श्रमिक संघ के विविध प्रयासों के परिणामस्वरूप सीमान्त आय उत्पादकता बढ़कर MRP हो जाती है ।

श्रमिकों की इस क्षमता-सुधार (Efficiency Improvement) के कारण सन्तुलन की दशा में मजदूरी OW से बढ़कर OW’ (अर्थात् NF) हो जाती है जबकि रोजगार स्तर पर इस मजदूरी वृद्धि का प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता । इस दशा में श्रमिक संघ की भूमिका संरचनात्मक कही जा सकती है क्योंकि बिना रोजगार स्तर में कमी के श्रमिक ऊँची मजदूरी दर प्राप्त करने में सफल हो रहे हैं ।


Essay # 5. मजदूरी में भिन्नता (Difference in Wages):

विभिन्न व्यवसायों में एक ही प्रकार के कार्य करने वाले श्रमिकों की मजदूरी में भिन्नताएँ देखने में आती हैं ।

इस मजदूरी की भिन्नताओं के निम्नलिखित कारण हैं:

a. कार्य-क्षमताओं में अन्तर:

मजदूरों की कार्यक्षमता का मजदूरी की दर पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है । अतः अधिक कार्य-क्षमता वाले श्रमिकों को उन श्रमिकों से अधिक मजदूरी प्रदान की जाती है जिसकी कार्य-क्षमता अपेक्षाकृत कम होती है ।

b. रोजगार की नियमितता:

जिन व्यवसायों में कार्य निरन्तर व नियमित रूप से चलता रहता है, वहाँ श्रमिकों को उन मजदूरों से अपेक्षाकृत कम मजदूरी प्रदान की जाती है जहाँ कार्य अस्थायी एवं अनिश्चित होता है ।

c. स्थान विशेष पर द्रव्य की क्रय-शक्ति:

जिन स्थानों पर द्रव्य की क्रय-शक्ति कम होती है अर्थात् वस्तुओं व सेवाओं के मूल्य अधिक होते हैं, वहाँ श्रमिकों को आकर्षित करने के लिए अधिक मजदूरी दी जाती है । इसी कारण महानगरों में सामान्य नगरों की अपेक्षा मजदूरों से अधिक मजदूरी दी जाती है ।

d. कार्य का स्वभाव:

सरल, रुचिकर, स्वास्थ्यकर व सम्मानित कार्यों के लिए कम मजदूरी प्रदान की जाती है, जबकि अरुचिकर, घृणित एवं जोखिम वाले व्यवसायों में मजदूरी की दर अधिक होती है ।

e. प्रशिक्षण व्यय:

जिन व्यवसायों को सीखने में कम व्यय तथा कम समय लगता है, उन व्यवसायों में मजदूरी की दर कम होती है । इसके विपरीत, जिन व्यवसायों के प्रशिक्षण में समय तथा व्यय अधिक होता है उन व्यवसायों में मजदूरी अधिक प्रदान की जाती है । यही कारण है कि एक डॉक्टर तथा इंजीनियर को एक अध्यापक की अपेक्षा अधिक मजदूरी दी जाती है ।

f. नौकरी की सुरक्षा एवं पदोन्नति की आशा:

निजी व्यवसाय की अपेक्षा सरकारी नौकरी में व्यक्ति कम वेतन लेने पर ही उद्यत हो जाते हैं क्योंकि सरकारी नौकरी में निजी व्यवसाय की अपेक्षा नौकरी की अधिक सुरक्षा होती है ।

g. गतिशीलता का अभाव:

कभी-कभी श्रमिक सामाजिक तथा आर्थिक परिस्थितियों के कारण ऐसे स्थानों पर पहुँचने में असमर्थ रहते हैं जहाँ उन्हें अधिक मजदूरी प्राप्त हो सकती है और वे अपने ही स्थान पर कम मजदूरी पर कार्य करते हैं ।

h. अतिरिक्त सुविधाएँ:

जिन व्यवसायों में कर्मचारी को नकद मजदूरी के अतिरिक्त अन्य सुविधाएँ भी प्रदान की जाती हैं उदाहरणार्थ, मकान की सुविधा, निःशुल्क डॉक्टरी सहायता आदि वहाँ नकद मजदूरी प्रायः कम दी जाती है ।

i. कार्य के घण्टे व अवकाश:

जिन व्यवसायों में कर्मचारी को अधिक समय तक कार्य करना पड़ता है व अवकाश भी कम मिलता है वहाँ मजदूरी अधिक प्रदान की जाती है किन्तु उन व्यवसायों में जहाँ कार्य अपेक्षाकृत कम समय तक करना पड़ता है एवं छुट्टियाँ भी अधिक प्राप्त होती हैं वहाँ मजदूरी कम प्रदान की जाती है । इसी आधार पर एक बैंक के क्लर्क को एक स्कूल के क्लर्क की अपेक्षा अधिक वेतन प्राप्त होता है ।

j. कार्य की विश्वसनीयता:

जिन व्यवसायों में ईमानदारी तथा विश्वास का विशेष महत्व है उनमें प्रायः ऊँचे वेतन ही दिये जाते हैं । इसी कारण एक बैंक मैनेजर तथा न्यायाधीश को ऊँचा वेतन दिया जाता है ।

k. श्रमिकों की मोलभाव करने की शक्ति:

जिन व्यवसायों में श्रमिकों का संगठन सुदृढ़ होता है वहाँ के श्रमिकों में मोलभाव करने की शक्ति अधिक होती है । अतः वे अपेक्षाकृत अधिक मजदूरी प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं । प्रायः बड़े उद्योगों में संगठित श्रम संघ होने के कारण श्रमिक ऊँची मजदूरी प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं, जबकि छोटे उद्योगों में असंगठित श्रम के कारण श्रमिक कम मजदूरी पर ही कार्य करते रहते हैं ।