Here is an essay on ‘Monopoly’ for class 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘Monopoly’ especially written for school and college students in Hindi language.

Essay on Monopoly


Essay Contents:

  1. एकाधिकार की परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Monopoly)
  2. एकाधिकारी बाजार की विशेषताएँ (Features of Monopolist Market)
  3. एकाधिकार के प्रकार (Types of Monopoly)
  4. एकाधिकार में फर्म के सन्तुलन की दशाएँ (Conditions of Firm’s Equilibrium under Monopoly)
  5. क्या एकाधिकारी ‘कीमत’ तथा ‘उत्पादन मात्रा’ दोनों को साथ-साथ निश्चित कर सकता है ? (Can a Monopolist Fix Both the Price and Output Simultaneously ?)


Essay # 1. एकाधिकार की परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Monopoly):

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एकाधिकार दो शब्दों से मिलकर बना है – एक + अधिकार अर्थात् बाजार की वह स्थिति जब बाजार में वस्तु का केवल एक मात्र विक्रेता हो । एकाधिकारी बाजार दशा में वस्तु का एक अकेला विक्रेता होने के कारण विक्रेता का वस्तु की पूर्ति पर पूर्ण नियन्त्रण रहता है । विशुद्ध एकाधिकार (Pure Monopoly) में वस्तु का निकट स्थानापन्न भी उपलब्ध नहीं होता ।

एकाधिकारी बाजार में वस्तु का एक ही उत्पादक होने के कारण फर्म तथा उद्योग में कोई अन्तर नहीं होता अर्थात् एकाधिकार में उद्योग ही फर्म है अथवा फर्म ही उद्योग है ।

प्रो. मैक्कॉनल (Mc Connell) के शब्दों में, ”शुद्ध एकाधिकार की स्थिति उस समय होती है जब एक अकेली फर्म एक वस्तु की एकमात्र उत्पादक होती है जिसका कोई स्थानापन्न नहीं होता ।”

प्रो. ब्रैफ (Braff) के शब्दों में, ”शुद्ध एकाधिकार के बाजार में एक विक्रेता होता है । एकाधिकारी माँग बाजार की माँग होती है, एकाधिकारी कीमत निर्माता होता है । एकाधिकार स्थानापन्न का अभाव प्रदर्शित करता है ।”

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प्रो. लेफ्टविच (Leftwitch) के अनुसार, ”शुद्ध एकाधिकार वह बाजार दशा है जिसमें एक फर्म उस वस्तु के उत्पादन को बेचती है जिसका स्थानापन्न उपलब्ध न हो । इस प्रकार वस्तु का सम्पूर्ण बाजार इस फर्म के लिए ही होता है । इसमें समीपस्थ वस्तुएँ नहीं होतीं जिनकी कीमत एवं बिक्री एकाधिकारी वस्तु की कीमत एवं उनके विक्रय को प्रभावित कर सकें ।”

एकाधिकार में निकट स्थानापन्न के अभाव को माँग की आड़ी लोच (Cross Elasticity of Demand) के शब्दों में भी व्यक्त किया जा सकता है । माँग की आड़ी लोच से अभिप्राय है कि किसी वस्तु की माँग में किसी दूसरी वस्तु की कीमत में परिवर्तन के फलस्वरूप कितना परिवर्तन होता है ।

इस प्रकार एकाधिकार में एकाधिकारी वस्तु की आड़ी माँग लोच लगभग शून्य अथवा नगण्य होती है क्योंकि एकाधिकारी वस्तु का स्थानापन्न नहीं होता ।

प्रो. स्टिगलर के अनुसार, ”एकाधिकार तब उत्पन्न होता है जब फर्म के उत्पादन की आड़ी माँग लोच दूसरी फर्मों की कीमतों के सन्दर्भ में सूक्ष्म हो ।”

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विशुद्ध एकाधिकार में माँग की लोच इकाई होती है जिसके कारण एकाधिकार के माँग वक्र के प्रत्येक बिन्दु पर उपभोक्ता का व्यय एकसमान रहता है । प्रो. स्टोनियर एवं प्रो. हेग के अनुसार, ऐसी दशा में औसत आगम वक्र (AC Curve) आयताकार अतिपरवलय (Rectangular Hyperbola) होता है जिसकी माँग की लोच इकाई के बराबर होती है ।

एकाधिकार में एकमात्र उत्पादक एवं विक्रेता होने के कारण तथा निकट स्थानापन्न के अभाव के कारण उद्योग में अन्य फर्मों के प्रवेश पर कड़ा प्रतिबन्ध होता है । दूसरे शब्दों में, एकाधिकार में और उद्योग में कोई अन्तर नहीं होता; फर्म ही उद्योग है तथा उद्योग ही फर्म है (Firm is Industry and Industry is Firm) | फलस्वरूप वस्तु का उद्योग माँग वक्र ऋणात्मक ढाल वाला होता है ।

एकाधिकारी पूर्ण प्रतियोगिता के उत्पादक की भाँति कीमत प्राप्तकर्ता (Price Taker) नहीं होता बल्कि कीमत निर्धारक (Price Maker) होता है किन्तु एकाधिकारी किसी वस्तु की कीमत तथा उस वस्तु की पूर्ति दोनों को एक साथ नियन्त्रित नहीं कर सकता । यदि वह विक्रय को बढ़ाना चाहता है तो उसे कीमत कम करनी पड़ेगी ।

एकाधिकारी के लिए सीमान्त आगम कम होता है औसत आगम से,

MR < AR

या, MR < वस्तु की प्रति इकाई कीमत

क्योंकि एकाधिकार में,

जहाँ e = कीमत सापेक्षता

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अथवा,

इस प्रकार एकाधिकार में AR तथा MR वक्रों का सम्बन्ध कीमत सापेक्षता पर निर्भर करता है ।

प्रस्तुत चित्र 1 में एकाधिकारी का माँग वक्र DD ही औसत आगम वक्र (AR Curve) है ।

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चित्र में सीमान्त आगम वक्र को MR से दिखाया गया है । सीमान्त आगम वक्र एक अतिरिक्त इकाई के विक्रय से होती हुई आय को प्रदर्शित करता है । एकाधिकार में वस्तु की अतिरिक्त मात्रा बेचने पर विक्रेता को वस्तु की कीमत कम करनी पड़ती है जिसके कारण AR वक्र गिरता हुआ है और MR वक्र AR वक्र से नीचे है । दोनों वक्रों की दूरी मूल्य सापेक्षता (e) पर निर्भर करती है ।


Essay # 2. एकाधिकारी बाजार की विशेषताएँ (Features of Monopolist Market):

एकाधिकारी बाजार में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं:

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a. एक विक्रेता और अधिक क्रेता (One Seller & Large Number of Buyers):

एकाधिकारी बाजार में वस्तु का एकमात्र उत्पादक (अथवा विक्रेता) होता है जबकि क्रेताओं की संख्या अधिक होती है । क्रेताओं की संख्या अधिक होने के कारण क्रेता इस स्थिति में नहीं होते कि वे बाजार कीमत को प्रभावित कर सकें ।

b. निकट स्थानापन्नों का अभाव (No Close Substitutes):

बाजार में एकाधिकारी का कोई निकट स्थानापन्न उपलब्ध नहीं होता जिसके फलस्वरूप एकाधिकारी वस्तु की माँग की आड़ी लोच (Cross Elasticity of Demand) शून्य (Zero) होती है ।

c. एकाधिकारी स्वयं कीमत-निर्धारक (Monopolist as a Price Maker):

बाजार में अकेला उत्पादक एवं विक्रेता होने के कारण एकाधिकारी अपनी वस्तु की कीमत स्वयं तय करता है । दूसरे शब्दों में, एकाधिकारी कीमत और उत्पादन दोनों को निर्धारित कर सकता है किन्तु एकाधिकारी कीमत और उत्पादन दोनों को एक समय में एक साथ निर्धारित नहीं कर सकता ।

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d. नई फर्मों के प्रवेश पर प्रतिबन्ध (No Entry of New Firms):

एकाधिकार में नई फर्मों का उत्पादन क्षेत्र में प्रवेश पूर्णतः प्रतिबन्धित होता है क्योंकि उद्योग में नई फर्मों का प्रवेश हो जाने पर बाजार में एकाधिकार की स्थिति समाप्त हो जायेगी । एकाधिकारी का कोई प्रतियोगी नहीं होता । यही कारण है कि एकाधिकार में फर्म ही उद्योग है और उद्योग ही फर्म है ।

e. अधिकतम लाभ अर्जन की प्रवृत्ति (Tendency of Maximisation of Profit):

एक एकाधिकारी का उद्देश्य अधिकतम मुद्रा लाभ करना होता है । बाजार में प्रतियोगिता के अभाव के कारण एकाधिकारी का बाजार पर पूर्ण नियन्त्रण रहता है । एकाधिकारी सदैव अपने कुल लाभ को अधिकतम करना चाहता है, प्रति इकाई लाभ को नहीं ।

मार्शल के शब्दों में, ”एक एकाधिकारी का प्रमुख हित अपनी पूर्ति को माँग की दशाओं के अनुसार समायोजित करने में होता है परन्तु समायोजन इस ढंग से नहीं किया जाता जिससे कि कीमत केवल उत्पादन लागत को पूरा करे बल्कि उसे अधिकतम सम्भव कुल शुद्ध आय प्राप्त हो ।”

f. माँग वक्र का ऋणात्मक ढाल (Demand Curve Negatively Sloped):

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एकाधिकारी माँग वक्र ऋणात्मक ढाल वाला होता है और सीमान्त आगम (MR) औसत आगम (AR) से कम होता है । माँग वक्र का ढाल माँग की लोच (e) पर निर्भर करता है ।

 


Essay # 3. एकाधिकार के प्रकार (Types of Monopoly):

i. प्राकृतिक एकाधिकार (Natural Monopoly):

जब जलवायु, वातावरण तथा अन्य प्राकृतिक कारणों से किसी देश या किसी क्षेत्र विशेष में एकाधिकार उत्पन्न हो जाते हैं, उन्हें प्राकृतिक एकाधिकार कहा जाता है । उदाहरण के लिए, दक्षिणी अफ्रीका की हीरे तथा सोने की खानों पर एकाधिकार एवं अरब देशों द्वारा तेल पर एकाधिकार आदि प्राकृतिक एकाधिकार के अन्तर्गत आते हैं ।

ii. कानूनी एकाधिकार (Legal Monopoly):

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कुछ एकाधिकार कानूनी स्वीकृति द्वारा स्थापित किये जाते हैं । जैसे हरियाणा में बिजली की पूर्ति एक फर्म ‘हरियाण राज्य विद्युत मण्डल’ (HSEB) द्वारा की जाती है । इस क्षेत्र में किसी अन्य का प्रवेश कानून के संरक्षण से प्रतिबन्धित है ।

iii. सामाजिक एकाधिकार (Social Monopoly):

लोक-कल्याण की दृष्टि से अति आवश्यक सेवाओं को सरकार अपने अधिकार में रखती है, जैसे – डाक, रेलवे आदि । इसे सामाजिक एकाधिकार कहते हैं ।

iv. पूर्ण एकाधिकार एवं अपूर्ण एकाधिकार (Pure Monopoly and Imperfect Monopoly):

एकाधिकारी शक्ति की मात्रा (Degree) के आधार पर एकाधिकार को शुद्ध अथवा पूर्ण तथा अपूर्ण एकाधिकार में विभाजित किया जा सकता है । शुद्ध एकाधिकार वह स्थिति है जिसमें एक अकेली फर्म वस्तु की पूर्ति पर पूर्ण अधिकार रखती है तथा वस्तु का कोई निकट स्थानापन्न तक उपलब्ध नहीं होता है ।

इस प्रकार का एकाधिकार दैनिक जीवन में दुर्लभ होता है । अपूर्ण एकाधिकार में एकाधिकारी शक्ति की मात्रा न्यून होती है किन्तु शून्य नहीं ।

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v. लागत/बाजार एकाधिकार (Cost/Market Monopoly):

कई परिस्थितियों में एक वस्तु का उत्पादन यदि कोई बड़ी फर्म कर रही होती है जिसे आन्तरिक बचतें (Internal Economies) प्राप्त हो रही हैं तब ऐसी दशा में यदि छोटी फर्में उद्योग में प्रवेश का साहस ही न कर पायें तो इसे बाजार/लागत एकाधिकार कहते हैं ।

vi. औद्योगिक ऐच्छिक एकाधिकार (Industrial Voluntary Monopoly):

कुछ उत्पादक जब अपने संघ बनाकर परस्पर होने वाली प्रतियोगिता को समाप्त कर देते हैं तो इसे औद्योगिक संघ अथवा ऐच्छिक एकाधिकार कहा जाता है । व्यापारिक ट्रस्ट तथा अन्य संगठन इस प्रकार के एकाधिकार के उदाहरण हैं ।


Essay # 4. एकाधिकार में फर्म के सन्तुलन की दशाएँ (Conditions of Firms Equilibrium under Monopoly):

पूर्ण प्रतियोगिता की भाँति एकाधिकार में भी फर्म के सन्तुलन की दो शर्तें हैं ।

जो निम्नलिखित हैं:

शर्तें (Conditions):

1. सन्तुलन के बिन्दु पर,

MR = MC

सीमान्त आगम = सीमान्त लागत

एकाधिकारी का लाभ उस बिन्दु पर अधिकतम होगा जब वह अपना उत्पादन स्तर परिवर्तित करके अपने लाभ में कमी करता है अर्थात् सन्तुलन के बिन्दु पर आने के बाद एकाधिकारी किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं चाहेगा । अधिकतम लाभ का बिन्दु तब प्राप्त होता है जब सीमान्त आगम तथा सीमान्त लागत परस्पर बराबर हो जायें ।

दूसरे शब्दों में, एकाधिकारी उत्पादन उस बिन्दु तक करेगा जहाँ एक अतिरिक्त इकाई को बेचने से प्राप्त आगम बराबर है उस अतिरिक्त इकाई की उत्पादन लागत के; यही बिन्दु अधिकतर लाभ का बिन्दु होगा ।

यह शर्त MR = MC आवश्यक तो है किन्तु पर्याप्त नहीं । MR और MC के बराबर होने की दशा एक से अधिक बिन्दुओं पर उत्पन्न हो सकती है । ऐसे सभी बिन्दुओं में से जिन पर MR = MC है वह बिन्दु अन्तिम सन्तुलन का बिन्दु होगा ।

जहाँ पहली शर्त के साथ-साथ सन्तुलन की निम्नांकित दूसरी शर्त भी पूरी होगी:

2. सन्तुलन के बिन्दु पर,

दूसरे शब्दों में, सीमान्त लागत वक्र (MC Curve) सीमान्त आगम वक्र (MR Curve) को नीचे से काटता हुआ होना चाहिए । यह दशा पूरी होने पर ही वह बिन्दु अन्तिम सन्तुलन का बिन्दु होगा ।

उपर्युक्त दशाओं के पूरा होने के साथ-साथ एकाधिकारी सन्तुलन में एक सैद्धान्तिक बिन्दु विचार करने योग्य है । एकाधिकारी कभी भी अपनी वस्तु के उत्पादन का वह बिन्दु तय नहीं करेगा जहाँ उसके औसत आगम वक्र (AR Curve) की लोच इकाई से कम (Less than Unity) हो ।

एकाधिकारी का प्रयास सदैव यह होता है कि वह उस बिन्दु पर उत्पादन निर्धारित करे जहाँ माँग की लोच इकाई से अधिक (Greater than Unity) हो । इसका मुख्य कारण यह है कि जब माँग की लोच इकाई के बराबर होती है तब सीमान्त आगम (MR) शून्य होता है ।

माँग की लोच इकाई से कम होने पर MR ऋणात्मक (Negative) हो जाता है जिसका अभिप्राय है कि उसके कुल आगम (TR) में कमी होने लगती है जो उत्पादक के लिए हानिकारक है ।

चित्र 2 में औसत आगम वक्र PQ के PR भाग पर माँग की लोच इकाई से अधिक है क्योंकि इस भाग से सम्बन्धित MR वक्र का PX भाग धनात्मक है जिसके कारण कुल आगम वक्र (TR Curve) बिन्दु O से S तक बढ़ता हुआ है ।

बिन्दु R पर माँग की लोच इकाई के बराबर है अर्थात् सीमान्त आगम शून्य (बिन्दु X) तथा कुल आगम अधिकतम (बिन्दु S) होता है किन्तु माँग वक्र के RQ भाग से सम्बन्धित सीमान्त आगम वक्र ऋणात्मक है (देखें MR वक्र का XT भाग) तथा कुल आगम वक्र नीचे गिरने लगता है (देखें TR वक्र का SK भाग) जो हानि का सूचक है ।

अतः उत्पादक कभी भी माँग वक्र के PQ भाग पर उत्पादन बिन्दु निश्चित नहीं करेगा अर्थात् जहाँ माँग की लोच इकाई से कम हो वह बिन्दु एकाधिकारी का उत्पादन बिन्दु नहीं होगा ।

प्रथम शर्त के अनुसार एकाधिकारी तब अधिकतम लाभ प्राप्त करेगा जबकि MR = MC । साधारणतया सीमान्त लागत (MC) सदैव धनात्मक होती है । अतः एकाधिकारी उस बिन्दु पर उत्पादन सुनिश्चित करेगा जहाँ उसका सीमान्त आगम (MR) धनात्मक हो या दूसरे शब्दों में, जहाँ माँग की लोच इकाई से अधिक हो ।

केवल सीमान्त लागत (MC) के शून्य होने की दशा में एकाधिकारी वह बिन्दु उत्पादन के लिए चुनेगा जहाँ सीमान्त आगम शून्य हो । सामान्यतः एकाधिकारी की माँग की लोच इकाई से अधिक होने के बिन्दु पर उत्पादन तथा विक्रय करने की प्रवृत्ति पायी जाती है ।


Essay # 5. क्या एकाधिकारी ‘कीमत’ तथा ‘उत्पादन मात्रा’ दोनों को साथ-साथ निश्चित कर सकता है ? (Can a Monopolist Fix Both the Price and Output Simultaneously ?):

सामान्य दशाओं में एकाधिकारी के लिए वस्तु की पूर्ति और माँग दोनों दशाओं पर एक साथ नियन्त्रण रखना सम्भव नहीं हो पाता । बाजार में एकाधिकारी होने के कारण वह वस्तु की पूर्ति को तो नियन्त्रित कर लेता है परन्तु वह वस्तु की माँग को प्रभावित नहीं कर सकता । एक समय विशेष पर एकाधिकारी उत्पादन स्तर और कीमत दोनों को निर्धारित नहीं कर सकता ।

यदि वह कीमत निर्धारित करता है तब उसे उस कीमत पर उपभोक्ता की माँग के अनुसार पूर्ति तय करनी पड़ेगी तथा इसके विपरीत यदि वह उत्पादन स्तर (अथवा पूर्ति पक्ष) निर्धारित करता है तो बाजार में उपभोक्ता की माँग की दशाओं के अनुसार वस्तु की जो भी कीमत निश्चित होगी उस पर एकाधिकारी को अपनी वस्तु बेचनी होगी ।

एक ही समय पर पहले कीमत तय करना तथा उस कीमत पर इच्छानुसार वस्तु की मात्रा बेचना दोनों कार्य एकाधिकारी के लिए सम्भव नहीं होते ।

अब प्रश्न यह उठता है कि एकाधिकारी कीमत एवं पूर्ति में से किस घटक के निर्धारण को चुने । एक चतुर एकाधिकारी वस्तु की पूर्ति की तुलना में वस्तु की कीमत को नियन्त्रित करना अधिक पसन्द करता है क्योंकि अपने द्वारा निश्चित की गयी कीमत पर बाजार में उपस्थित होने वाली वस्तु की माँग को वह उतनी पूर्ति करके सहजता से पूरी कर लेगा ।

इसके विपरीत यदि वह पूर्ति निश्चित करता है तब उसे उस पूर्ति को बेचने के लिए माँग की दशाओं के आधार पर कम कीमत पर बिक्री करनी पड़ सकती है जिसके कारण एकाधिकारी को हानि का खतरा उत्पन्न हो सकता है । अतः एकाधिकारी के लिए कीमत निश्चित करना अधिक सुरक्षित है ।