Here is an essay on ‘National Income’ especially written for school and college students in Hindi language.

Essay # 1. राष्ट्रीय आय की परिभाषाएँ (Definition of National Income):

राष्ट्रीय आय के अध्ययन का आर्थिक सिद्धान्त में बहुत अधिक महत्व है । कोई भी उत्पादन, उत्पादन साधनों के सामूहिक सहयोग एवं संयोग के बिना असम्भव है । किसी देश के उत्पादन साधनों द्वारा किसी वर्ष में उत्पादित अन्तिम वस्तुओं तथा सेवाओं के भौतिक मूल्य को राष्ट्रीय आय कहते हैं ।

राष्ट्रीय आय, राष्ट्रीय लाभांश, राष्ट्रीय व्यय, राष्ट्रीय उत्पादन आदि शब्द एक-दूसरे के स्थान पर प्रयुक्त हो सकते हैं । राष्ट्रीय आय की सही गणना करने के लिए हम उत्पादन में प्रयोग किये जाने के कारण मशीनों तथा प्लाण्ट के मूल्य में हुई गिरावट तथा टूट-फूट को घटा देते हैं ।

इस प्रकार देश की सम्पूर्ण वार्षिक उत्पत्ति को राष्ट्रीय आय कहा जाता है । किसी अर्थव्यवस्था में एक वर्ष में राष्ट्र को वस्तुओं और सेवाओं का जो प्रवाह (Flow) प्राप्त होता है, उसे ही राष्ट्रीय आय कहते हैं ।

ADVERTISEMENTS:

प्रो. मार्शल, प्रो. पीगू एवं प्रो. फिशर ने अलग-अलग दृष्टिकोण से राष्ट्रीय आय की प्रस्तुति की है । इसके अतिरिक्त, प्रो. साइमन कुजनेट्‌स, प्रो. क्लार्क एवं संयुक्त राष्ट्र सँघ द्वारा दी गयी परिभाषा भी उल्लेखनीय है ।

मार्शल की परिभाषा:

मार्शल के अनुसार, ”किसी देश का श्रम और पूँजी उसके प्राकृतिक साधनों पर कार्यशील होकर प्रति वर्ष भौतिक और अभौतिक वस्तुओं का निश्चित वास्तविक उत्पादन करते हैं जिनमें सब प्रकार की सेवाएँ भी शामिल रहती हैं । इसे ही देश की वास्तविक राष्ट्रीय आय कहते हैं ।”

मार्शल ने उपर्युक्त परिभाषा में वास्तविक शब्द का प्रयोग इसलिए किया है क्योंकि कुल उत्पादन में से कच्चे माल का मूल्य, घिसावट (अथवा मूल्य ह्रास) एवं कर तथा बीमा व्यय को निकालकर ही वास्तविक राष्ट्रीय आय ज्ञात की जा सकती है । इस आय में विदेशों से प्राप्त होने वाली आय भी शामिल रहती है ।

ADVERTISEMENTS:

मार्शल की परिभाषा की विशेषताएँ:

मार्शल की उपर्युक्त परिभाषा के आधार पर, उसकी निम्नांकित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं:

(1) राष्ट्रीय आय की गणना का आधार एक वर्ष है अर्थात् एक वर्ष के उत्पादन के आधार पर ही राष्ट्रीय आय की गणना की जाती है ।

(2) मार्शल ने राष्ट्रीय आय में विदेशों से अर्जित आय को भी शामिल किया है ।

ADVERTISEMENTS:

(3) मार्शल ने राष्ट्रीय आय की गणना कुल उत्पादन के आधार पर न करके शुद्ध राष्ट्रीय उत्पादन के आधार पर की है । इसे परिभाषा में स्पष्ट कर दिया गया है ।

(4) मार्शल ने राष्ट्रीय आय की गणना के लिए उत्पादन को आधार बनाया है ।

मार्शल की परिभाषा की आलोचना:

यद्यपि मार्शल की परिभाषा सरल तथा व्यापक है, फिर भी इसमें कुछ व्यावहारिक कठिनाइयाँ हैं ।

जो अग्र प्रकार है:

(1) सही गणना में कठिनाई:

सम्पूर्ण उत्पादन के आधार पर राष्ट्रीय आय की गणना करना अत्यन्त कठिन कार्य है । कुछ वस्तुएँ ऐसी होती हैं जिनका उत्पादकों द्वारा प्रत्यक्ष उपभोग कर लिया जाता है और इस प्रकार अनेक वस्तुएँ और सेवाएँ विनिमय में नहीं आतीं । अतः राष्ट्रीय आय में इन्हें शामिल करने में कठिनाई होती है ।

(2) सम्पूर्ण उत्पादन की गणना अत्यन्त कठिन कार्य:

ADVERTISEMENTS:

देश में वर्ष भर में असंख्य वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है तथा एक वस्तु की भी कई किस्में होती हैं । साथ ही उत्पादन करने वाले उद्यमी भी असंख्य होते हैं । ऐसी स्थिति में उत्पादन के आधार पर राष्ट्रीय आय की गणना करना बहुत ही जटिल प्रक्रिया है ।

(3) दोहरी गणना की त्रुटि:

यद्यपि मार्शल ने इस बात पर जोर दिया है कि राष्ट्रीय आय की गणना करते समय दोहरी गणना की त्रुटि से बचना चाहिए, किन्तु यह एक ऐसी गलती है जिससे काफी सावधानी के बावजूद नहीं बचा जा सकता जैसे पहले गन्ने के उत्पादन की गणना कर ली जाय तथा बाद में उससे उत्पादित शक्कर की गणना भी राष्ट्रीय आय में कर ली जाय । इससे राष्ट्रीय आय का सही अनुमान नहीं लग पाता ।

प्रो. पीगू की परिभाषा:

ADVERTISEMENTS:

पीगू के अनुसार, ”राष्ट्रीय आय समाज की वस्तुगत आय का वह भाग है, जिसे मुद्रा में मापा जा सकता है एवं जिसमें विदेशों से प्राप्त आय भी शामिल रहती है ।”

पीगू की परिभाषा से स्पष्ट है कि राष्ट्रीय आय में केवल वे ही वस्तुएँ और सेवाएँ शामिल होती हैं जिनका बाजार में विनिमय किया जा सकता है क्योंकि मुद्रा में उसी समय वस्तुओं को मापा जा सकता है जब उनका विनिमय किया जा सके ।

मार्शल की परिभाषा की तुलना में पीगू की परिभाषा अधिक व्यावहारिक एवं उपयुक्त है क्योंकि इसमें राष्ट्रीय आय की गणना करने के लिए मुद्रा में मापी जाने वाली वस्तुओं और सेवाओं को ही शामिल किया जाता है । इससे दोहरी गणना के दोष से बचा जा सकता है । इस परिभाषा की एक विशेषता यह भी है कि इसमें विदेशी विनियोगों से प्राप्त आय को भी शामिल किया जाता है ।

पीगू की परिभाषा की विशेषताएँ:

ADVERTISEMENTS:

पीगू की उपर्युक्त परिभाषा के आधार पर उसकी निम्नांकित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं:

(1) मुद्रा को मूल्यांकन का आधार बनाकर पीगू ने अपनी परिभाषा को सरल एवं स्पष्ट बना दिया है ।

(2) राष्ट्रीय आय की गणना में विदेशों से प्राप्त आय को भी शामिल कर लिया गया है ।

(3) मुद्रा को मापदण्ड बनाकर पीगू ने राष्ट्रीय आय की गणना को सरल एवं सुविधाजनक बना दिया है क्योंकि इससे आय की दोहरी गणना की कठिनाई से बचा जा सकता है ।

(4) गणना में सरलता एवं परिभाषा स्पष्ट होने के कारण पीगू की परिभाषा मार्शल की तुलना में अधिक व्यावहारिक है ।

आलोचना:

ADVERTISEMENTS:

यद्यपि पीगू ने मुद्रा का मापदण्ड प्रदान कर अपनी राष्ट्रीय आय की परिभाषा को निश्चितता प्रदान करने का प्रयत्न किया है किन्तु उनकी परिभाषा दोषों से मुक्त नहीं है ।

निम्न आधार पर इसकी आलोचना की जाती है:

(1) संकीर्ण परिभाषा:

वास्तव में, पीगू की परिभाषा संकीर्ण है । बहुत-सी ऐसी वस्तुएँ हैं जिनका विनिमय नहीं किया जाता फिर भी वे राष्ट्रीय आय का अंश होती हैं । जैसे यदि कोई कृषक अपनी उपज का वह भाग जिसे वह निजी उपभोग के लिए रख लेता है, पीगू के अनुसार राष्ट्रीय आय में शामिल नहीं होगा, क्योंकि उसका विनिमय नहीं किया जाता । किन्तु यह उपज निश्चित ही राष्ट्रीय आय का भाग है ।

(2) वस्तुओं और सेवाओं में भेद:

पीगू ने अपनी परिभाषा में ऐसी वस्तुओं में अनावश्यक भेद किया है जिन्हें मुद्रा में नापा अथवा नहीं नापा जा सकता है । वास्तव में, ऐसा भेद कृत्रिम हो जाता है । पीगू ने स्वयं यह स्वीकार किया है कि, ”क्रय की जाने वाली एवं क्रय न की जाने वाली वस्तुओं में परस्पर कोई आधारभूत अन्तर नहीं होता ।”

ADVERTISEMENTS:

(3) राष्ट्रीय आय का सही आकलन नहीं:

पीगू की परिभाषा के अनुसार यदि मुद्रा में मापी जाने वाली वस्तुओं को ही राष्ट्रीय आय में शामिल किया जाय तो आय की सही गणना नहीं हो सकती । पीगू के अनुसार एक वेतनभोगी नर्स के रूप में कार्य करने वाली महिला की सेवाएँ राष्ट्रीय आय में शामिल की जायेंगी किन्तु घर में बच्चों की देखरेख करते समय उसकी सेवाएँ राष्ट्रीय आय में शामिल नहीं होंगी क्योंकि इसके लिए उसे कोई पारिश्रमिक नहीं दिया जाता ।

(4) वस्तु-विनिमय की अर्थव्यवस्था में लागू नहीं:

पीगू की परिभाषा केवल ऐसी विकसित अर्थव्यवस्था में लागू होती है जहाँ सम्पूर्ण विनिमय मुद्रा में होता है । किन्तु ऐसी पिछड़ी अर्थव्यवस्था में जहाँ अधिकांश सौदे वस्तु-विनिमय के द्वारा होते हैं, राष्ट्रीय आय की गणना करना सम्भव नहीं है । अर्थात् गैर-मौद्रिक क्षेत्र में पीगू की परिभाषा लागू नहीं होती ।

इस प्रकार सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से पीगू की परिभाषा त्रुटिपूर्ण है ।

ADVERTISEMENTS:

फिशर की परिभाषा:

प्रो. इरविंग फिशर ने मार्शल और पीगू के दृष्टिकोण से भिन्न राष्ट्रीय आय की परिभाषा प्रस्तुत की है । जहाँ मार्शल और पीगू ने उत्पादन को आधार मानकर राष्ट्रीय आय की परिभाषा दी है, फिशर ने उपभोग के आधार पर राष्ट्रीय आय को परिभाषित किया है ।

फिशर के अनुसार, ”वास्तविक राष्ट्रीय आय, एक वर्ष में उत्पादित शुद्ध उपज का वह अंश है जिसका उस वर्ष में प्रत्यक्ष रूप से उपभोग किया जाता है ।”

इसे स्पष्ट करते हुए फिशर ने अन्यत्र राष्ट्रीय आय की परिभाषा इस प्रकार दी है, ”राष्ट्रीय लाभांश अथवा आय में केवल उन सेवाओं को शामिल किया जाता है जो अन्तिम उपभोक्ता द्वारा प्राप्त की जाती हैं चाहे उन्हें भौतिक वातावरण से प्राप्त किया गया हो अथवा मानवीय वातावरण से प्राप्त किया गया हो । इस प्रकार एक पियानो या ओवरकोट जो मेरे लिए इस वर्ष बनाया गया है इस वर्ष की आय का भाग नहीं है केवल पूँजी में वृद्धि है । केवल उतनी ही सेवा जो इन वस्तुओं से मुझे इस वर्ष प्राप्त होगी आय में शामिल होगी ।”

इस परिभाषा के अनुसार किसी एक विशेष वर्ष में उत्पादित किसी महत्वपूर्ण वस्तु को राष्ट्रीय आय में शामिल नहीं किया जाता वरन् उस वस्तु के उसी अंश को शामिल किया जाता है जिसका उपभोग किया जाता है ।

फिशर की परिभाषा की विशेषताएँ:

ADVERTISEMENTS:

फिशर की राष्ट्रीय आय की परिभाषा से उसकी निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं:

(1) फिशर ने ‘उपभोग’ के आधार पर राष्ट्रीय आय की परिभाषा प्रस्तुत की है जबकि मार्शल तथा पीगू ने उत्पादन को राष्ट्रीय आय की गणना का आधार बनाया है ।

(2) फिशर की परिभाषा आर्थिक कल्याण के अधिक निकट है क्योंकि उपभोग का कल्याण से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है । मात्र उत्पादन से ही कल्याण में वृद्धि नहीं होती ।

(3) आलोचकों के अनुसार फिशर की परिभाषा अधिक वैज्ञानिक एवं तर्कपूर्ण है ।

आलोचना:

मार्शल एवं पीगू की तुलना में, फिशर की परिभाषा इस दृष्टि से उचित है कि इसमें उपभोग को आर्थिक कल्याण का महत्वपूर्ण घटक माना गया है । कल्याण का सम्बन्ध सन्तुष्टि से होता है एवं सन्तुष्टि उपभोग से की जा सकती है । जहाँ तक उत्पत्ति का प्रश्न है, उसका कल्याण पर केवल अप्रत्यक्ष प्रभाव ही पड़ता है ।

चूँकि फिशर की परिभाषा उपभोग से सम्बन्धित है, अतः वह उपयुक्त है । फिशर की परिभाषा इस मिथ्या धारणा को दूर करती है कि मात्र उत्पादन में वृद्धि करने से कल्याण में वृद्धि हो सकती है ।

उपर्युक्त गुणों के बावजूद फिशर की परिभाषा में निम्नलिखित दोष हैं:

(1) गणना कठिन:

उत्पादन की तुलना में, वास्तविक उपभोग के मौद्रिक मूल्य की गणना करना काफी कठिन है । उपभोग का कार्य विभिन्न उपभोक्ताओं द्वारा विभिन्न समय में किया जाता है अतः कुल उपभोग की गणना और उसका मौद्रिक मूल्य ज्ञात करना एक जटिल प्रक्रिया है ।

(2) अव्यावहारिक:

फिशर की परिभाषा के आधार पर टिकाऊ वस्तुओं के उपभोग की राष्ट्रीय आय में गणना एक अव्यावहारिक कदम है । फिशर के दिये ओवरकोट का उदाहरण लें, यदि इसका मूल्य Rs. 500 है तथा इसका जीवन दस वर्ष मानें तो Rs. 50 एक वर्ष की राष्ट्रीय आय में शामिल होंगे जबकि मार्शल और पीगू के अनुसार पूरे Rs. 500 ही उस वर्ष की राष्ट्रीय आय में शामिल होंगे और सम्भव है ओवरकोट दस वर्ष से कम या ज्यादा चले ।

(3) दोहरी गणना की समस्या:

उपभोग की दृष्टि से ऐसी टिकाऊ वस्तुओं की गणना मुश्किल है जिनके स्वामित्व और मूल्य में परिवर्तन होता रहता है । जैसे एक मोटरकार अगले वर्ष ब्लेक कीमत पर बेच दी जाए तो किस कीमत को राष्ट्रीय आय में शामिल किया जाय, वास्तविक कीमत को या ब्लेक की कीमत को ? एवं इसका सेवा मूल्य कैसे नापा जाए ?

उपर्युक्त तीनों परिभाषाओं में कौन श्रेष्ठ?

अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि उपर्युक्त तीनों परिभाषाओं में कौन-सी परिभाषा श्रेष्ठ है ? यद्यपि तीनों परिभाषाओं के अपने गुण हैं किन्तु इनकी उपयुक्तता इस बात पर निर्भर रहेगी कि राष्ट्रीय आय की गणना का क्या उद्देश्य है ? यदि हम राष्ट्रीय उपभोग को ज्ञात करना चाहते हैं तो फिशर की परिभाषा उपयुक्त होगी किन्तु इस आधार पर राष्ट्रीय आय की गणना करना काफी कठिन होगा ।

जहाँ तक मार्शल और फिशर की परिभाषा की तुलना करने का प्रश्न है, दोनों में ज्यादा अन्तर नहीं है क्योंकि उत्पादन का अन्तिम उद्देश्य उपभोग ही है । जहाँ तक मार्शल और पीगू की परिभाषा का प्रश्न है, यदि देश में शुद्ध वस्तुओं और सेवाओं की गणना करना सम्भव है तो मार्शल की परिभाषा अधिक उपयुक्त है ।

पीगू की परिभाषा उसी स्थिति में उपयुक्त कही जा सकती है जब पूरी अर्थव्यवस्था मौद्रिक हो और दोहरी गणना से बचा जा सकता हो । पीगू की परिभाषा इसलिए भी व्यावहारिक कही जा सकती है क्योंकि इसके आधार पर राष्ट्रीय आय की गणना सरलता से की जा सकती है ।

राष्ट्रीय आय की कुछ आधुनिक परिभाषाएँ:

प्रो. साइमन कुजनेट्‌स की परिभाषा फिशर से मिलती-जुलती है क्योंकि उसमें उपभोग पर ध्यान केन्द्रित किया गया है । यह इस प्रकार है – ”राष्ट्रीय आय वस्तुओं और सेवाओं का वह वास्तविक उत्पादन है जो एक वर्ष की अवधि में देश की उत्पादन प्रणाली से अन्तिम उपभोक्ताओं के हाथों में पहुँचता है ।”

प्रो. कोलिन क्लार्क के अनुसार, ”किसी विशेष अवधि में राष्ट्रीय आय को उन वस्तुओं और सेवाओं के मौद्रिक मूल्य में व्यक्त किया जाता है जो उस विशेष अवधि में उपभोग के लिए उपलब्ध होती हैं । वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य उनके प्रचलित विक्रय मूल्य पर निकाला जाता है ।”

इस परिभाषा में जहाँ एक ओर वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन ज्ञात किया जाता है, दूसरी ओर उनका अन्तिम उद्देश्य उपभोग माना जाता है । इसमें मार्शल और फिशर के विचारों का मिश्रण है ।

संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय आय को वास्तविक राष्ट्रीय उत्पाद के रूप में परिभाषित किया गया है जो विभिन्न साधनों के अंशों में वृद्धि है तथा देश में एक वर्ष में वास्तविक राष्ट्रीय व्यय की गणना भी राष्ट्रीय आय का प्रतीक है ।

भारत की राष्ट्रीय आय समिति के अनुसार, ”राष्ट्रीय आय में एक दी हुई अवधि में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं का आकलन किया जाता है किन्तु इसमें दोहरी गणना नहीं की जाती ।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि राष्ट्रीय आय में एक वर्ष में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के वास्तविक मूल्य को शामिल किया जाता है ।

Essay # 2. राष्ट्रीय आय की गणना की विधियाँ (Methods of Measuring National Income):

1. उत्पादन गणना प्रणाली (Production Method):

इस विधि को औद्योगिक उद्‌गम प्रणाली या सूची गणना (Inventory Method) भी कहते हैं । इस विधि के अनुसार किसी अर्थव्यवस्था में एक वर्ष में जो वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन होता है, उसके कुल मूल्य का जोड़ (Sum) लगा लिया जाता है । जोड़ लगाते समय दोहरी गणना (Double Counting) से बचने के लिए केवल अन्तिम वस्तुओं और सेवाओं को ही सम्मिलित किया जाता है ।

इस विधि की सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि देश में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य सम्बन्धी सही एवं विस्तृत समंक (Data) उपलब्ध नहीं होते और यह पता लगाना भी कठिन हो जाता है कि वस्तु अन्तिम वस्तु है अथवा मध्यावर्ती वस्तु ।

2. आय की गणना प्रणाली (Income Method):

इस प्रणाली के अन्तर्गत देश में विभित्र वर्गों की अर्जित आय को जोड़ लिया जाता है । उत्पत्ति के विभिन्न साधनों द्वारा उपलब्ध शुद्ध आय की गणना कर ली जाती है । इस प्रणाली में देश के सभी नागरिकों की आय का योग किया जाता है ।

निम्नलिखित भुगतानों का योग ही राष्ट्रीय आय होती है:

(i) मजदूरी एवं पारिश्रमिक

(ii) स्वनयुक्त (Self-Employed) आय

(iii) कर्मचारियों के कल्याण के लिए अंशदान

(iv) लाभांश

(v) ब्याज

(vi) अतिरिक्त लाभ

(vii) लगान और किराया

(viii) सरकारी उद्यमों के लाभ

(ix) विदेशों से साधनों की शुद्ध आय

3. व्यय की गणना प्रणाली (Expenditure or Outlay Method):

इस प्रणाली में हम एक वर्ष में अर्थव्यवस्था में होने वाले व्यय के कुल प्रवाह का योग करते हैं ।

इस विधि के अनुसार:

Total Expenditure = Total Personal Consumption Expenditure + Gross Domestic Private Investment + Government Purchases of Goods and Services + Net Foreign Investment (Export Value – Import Value)

4. सामाजिक लेखांकन प्रणाली (Social Accounting Method):

इस विधि के अनुसार सम्पूर्ण समाज में लेन-देन (Transaction) करने वालों को विभिन्न वर्गों में बाँटा जाता है । ये वर्ग उत्पादक, व्यापारी, अन्तिम उपभोक्ता आदि के रूप में होते हैं । इस विधि का प्रतिपादन आर्थिक मन्दी के पश्चात् अनेक प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों द्वारा किया गया और यह विधि राष्ट्रीय आय गणना की नवीनतम विधि मानी जाती है ।

हैरल्ड ईडी एवं ऐलन पी. कॉक के अनुसार, ”सामाजिक लेखांकन मनुष्यों तथा मानवीय संस्थाओं को भली-भाँति समझने में सहायक होता है । इसमें केवल आर्थिक क्रियाओं का वर्गीकरण ही नहीं किया जाता है बल्कि अर्थतन्त्र के संचालन की जाँच में एकत्रित सूचना के प्रयोग का भी समावेश होता है ।”

इस विधि का प्रयोग विकसित राष्ट्रों द्वारा किया जाता है ।

Essay # 3. राष्ट्रीय आय की गणना सम्बन्धी कठिनाइयाँ (Difficulties in the Measurement of National Income):

राष्ट्रीय आय की गणना करने में अनेकों कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ।

जो निम्नवत् हैं:

1. दोहरी गणना (Double Counting):

अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि एक क्षेत्र का उत्पादन दूसरे क्षेत्र की कच्चे माल (Input) की पूर्ति करता है जिसके कारण यह निश्चय करना एक कठिन कार्य है कि किस क्षेत्र का उत्पादन अन्तिम उत्पादन है ।

कई बार अन्तिम वस्तु का निर्धारण नहीं हो पाता जिसके कारण एक ही उत्पादन को राष्ट्रीय आय की गणना में एक से अधिक बार सम्मिलित कर लिया जाता है । एक ही उत्पादन की एक से अधिक बार गणना दोहरी गणना (Double Counting) की समस्या उत्पन्न करती है ।

2. स्व-उपभोग एवं वस्तु विनिमय प्रणाली (Self-Consumption and Barter System):

भारत जैसे देश में राष्ट्रीय उत्पादन का अनुमान ठीक से नहीं लगाया जा सकता क्योंकि भारत में उत्पादन का अधिकांश भाग किसान द्वारा स्व-उपभोग हेतु रख लिया जाता है जिसके कारण सम्पूर्ण फसल विक्रय हेतु मण्डी/बाजार में नहीं आ पाती ।

इसके अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत से सौदे वस्तु विनिमय प्रणाली के अन्तर्गत होते हैं जिसमें एक उत्पादन को दूसरे उत्पादन से बदल लिया जाता है । दोनों ही परिस्थितियों में यह कठिनाई सही राष्ट्रीय उत्पादन की गणना में बाधक है । स्पष्ट है कि इन समस्याओं के साथ राष्ट्रीय आय की सही गणना नहीं की जा सकती ।

3. कीमत स्तर में परिवर्तन (Change in Price Level):

कीमत स्तरों में तेजी से परिवर्तन की दशा होने में यह कठिनाई उत्पन्न होती है कि जब विभिन्न वर्षों की राष्ट्रीय आय की तुलना करनी होती है तो इसके लिए एक आधार वर्ष के सापेक्ष राष्ट्रीय आय का समायोजन करना पड़ता है । सही आधार वर्ष का चुनाव एक समस्या उत्पन्न करता है ।

4. विश्वसनीय समंकों का अभाव (Lack of Reliable Statistics):

भारत जैसे विकासशील देश में विश्वसनीय समंकों का अभाव बहुधा राष्ट्रीय आय की गणना में बाधा उत्पन्न करता है क्योंकि यहाँ अशिक्षित, अन्धविश्वासी एवं उदासीन व्यक्तियों की अधिक मात्रा के कारण यथार्थ सूचनाएँ प्राप्त नहीं हो पातीं ।

5. विशिष्टीकरण की कमी (Lack of Specialisation):

अर्द्ध-विकसित देशों में विशिष्टीकरण की समस्या भी एक प्रमुख समस्या होती है क्योंकि अधिकांश छोटे-छोटे किसान और मजदूर अपने खाली समय में कोई और व्यवसाय में काम करते हैं । व्यावसायिक विशिष्टीकरण के अभाव के कारण राष्ट्रीय आय का सही अनुमान लगाना एक कठिन कार्य है ।

6. कुछ विशिष्ट सेवाएँ (A Few Specific Services):

कुछ विशिष्ट सेवाएँ भी राष्ट्रीय आय की सही माप में कठिनाइयाँ उत्पन्न करती हैं । जैसे एक नर्स की अस्पताल में सेवा और वही सेवा घर पर । एक फर्म के मालिक की पत्नी द्वारा महिला सचिव के रूप में दी गयी सेवा । इन सेवाओं को राष्ट्रीय आय में सम्मिलित किया जाये अथवा नहीं यह एक समस्या बनी रहती है ।

Essay # 4. राष्ट्रीय आय का महत्व (Importance of National Income):

A. आर्थिक प्रगति का सूचक (Index of Economic Progress):

राष्ट्रीय आय के आधार पर ही किसी देश की आर्थिक प्रगति की माप की जा सकती है ।

जहाँ,

ΔY = राष्ट्रीय आय में वृद्धि

Y = प्रारम्भिक राष्ट्रीय आय

B. विभिन्न क्षेत्रों का तुलनात्मक अध्ययन (Comparative Study of Different Sectors of the Economy):

राष्ट्रीय आय सम्बन्धी समंकों के आधार पर अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है । उदाहरण के लिए, भारत में राष्ट्रीय आय का मुख्य स्रोत कृषि क्षेत्र है । भारतीय अर्थव्यवस्था में जो आर्थिक प्रगति हो रही है उसमें कृषि क्षेत्र के योगदान का अन्य क्षेत्रों के योगदान से तुलनात्मक अध्ययन राष्ट्रीय आय के समंकों के आधार पर किया जा सकता है ।

C. आर्धिक नियोजन एवं नीति निर्धारण (Economic Planning and Policy Formulation):

किसी अर्थव्यवस्था के सीमित साधनों को पूर्व-निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति की दृष्टि से प्राथमिकता के आधार पर विभिन्न क्षेत्रों में बाँटना आर्थिक नियोजन कहलाता है । इससे अर्थव्यवस्था में विभिन्न क्षेत्रों के विकास कुछ वर्ग विशेष की आवश्यकताओं के आधार पर न होकर देश की आवश्यकताओं के आधार पर होता है । इसी दृष्टि से नीति निर्धारण के कार्य में राष्ट्रीय आय के समंकों का बहुत उपयोग होता है ।

D. करदान क्षमता (Taxable Capacity) की माप का आधार भी राष्ट्रीय आय ही है ।

E. आर्थिक विकास को निर्धारित करने वाले तत्व (Factors Determining Economic Growth):

किसी देश में आर्थिक विकास की दर अनेक तत्वों पर निर्भर करती है । इन तत्वों में कुछ तत्व आर्थिक होते हैं और कुछ अनार्थिक । पूँजी निर्माण की दर (Rate of Capital Formation) आर्थिक विकास की दृष्टि से एक प्रमुख निर्धारक तत्व होती है । इसके लिए उत्पादन, उपभोग, बचत आदि के सही, पर्याप्त एवं विश्वसनीय समंकों का होना आवश्यक है ।