Read this essay in Hindi to learn about the theories of distribution and its application in economics.

Essay # 1. वितरण का अर्थ: (Meaning of the Theories of Distribution):

अर्थशास्त्र में उत्पादन के विभिन्न साधनों के संयुक्त प्रयत्न द्वारा उत्पादित धन को उनके ही मध्य में बाँटने की आर्थिक क्रिया को वितरण कहा जात है । प्रो. चेपमैन के शब्दों में, ”वितरण के अर्थशास्त्र में इस बात का वितरण होता है कि एक समुदाय द्वारा उत्पादित धन को उन साधनों या उनके स्वामियों में किस प्रकार हिस्से किये जाते हैं जो उनके उत्पादन में क्रियाशील रहे हैं ।”

सामान्यतः आधुनिक काल में उत्पादन भूमि, श्रम, पूँजी, प्रबन्ध और साहस सभी के सहयोग से होता है । इन साधनों की पूर्ति करने वाले को साधक कहा जाता है जो क्रमशः भूमिपति, श्रमिक, पूँजीपति, संगठनकर्त्ता और साहसोद्यमी हैं । इन पाँच साधकों को उत्पादन के जो हिस्से मिलते हैं, उनके अलग-अलग नाम दिये गये हैं । भूमिपति को मिलने वाले भाग को लगान या भाटक (Rent) कहते हैं ।

राष्ट्रीय आय का वह भाग जो श्रमिक प्राप्त करता है, उसे मजदूरी (Wages) या भृत्ति कहा जाता है । पूँजीपति जो भाग प्राप्त करता है, वह ब्याज या सूद (Interest) कहलाता है । संगठनकर्त्ता के भाग को वेतन (Salary) और साहसोद्यमी के हिस्से को लाभ (Profit) कहा जाता है । यह आवश्यक नहीं है कि ये 5 भाग 5 अलग-अलग व्यक्तियों को ही दिये जायें ।

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एक ही व्यक्ति एक-से अधिक साधनों की पूर्ति करता है तो उसे लगान और ब्याज दोनों प्राप्त होगा । यदि संगठनकर्त्ता पूँजी लगाता है और साथ ही साथ जोखिम भी उठाता है तो उसे उसकी पूँजी पर ब्याज, जोखिम पर लाभ और संगठन कार्य के लिए वेतन मिलेगा ।

दिये गये चित्र में वितरण की समस्या के इन अंगों का भली-भाँति चित्रण किया गया है:

Essay # 2. साधन कीमत सिद्धान्त क्या है ? (What is Theory of Factor Pricing):

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प्रो. एनातोल मुराद के अनुसार, ”साधन कीमत सिद्धान्त का सम्बन्ध साधनों की सेवाओं (भूमि, श्रम, पूँजी, उद्यम) के लिए अनेक विक्रेताओं को दी जाने वाली कीमत से है । इसमें मजदूरी की दरों, ब्याज की दरों, लगान तथा लाभ का अध्ययन किया जाता है ।”

साधन कीमत सिद्धान्त के मुख्य निम्न दो कार्य हैं:

1. यह सिद्धान्त साधनों के विभिन्न उपयोगों में बँटवारे की क्रिया की व्याख्या करता है ।

2. यह सिद्धान्त इस बात की भी व्याख्या करता है कि भूमिपति को मिलने वाला लगान, श्रमिक की मजदूरी, पूँजी की सैवाओं के लिए प्राप्त ब्याज तथा उद्यमी को प्राप्त होने वाला लाभ कैसे निर्धारित होता है । इन साधनों को उत्पादन सेवाएँ (Production Services), साधन (Resources) या आगत (Inputs) भी कहा जाता है ।

Essay # 3. वितरण का पृथक् सिद्धान्त (Separate Theory of Distribution):

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किसी वस्तु की कीमत उसकी माँग एवं पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों द्वारा निर्धारित होती है । वस्तु की माँग में उपयोगिता निहित है जिसके कारण उपभोक्ता उसकी माँग करता है । उत्पादक वस्तु की पूर्ति लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से करता है ।

बाजार में माँग एवं पूर्ति की शक्तियों द्वारा वस्तु की कीमत उस बिन्दु पर निर्धारित होती है जहाँ उपभोक्ता तथा उत्पादक एक निश्चित कीमत पर वस्तु को क्रमशः खरीदने तथा बेचने के लिए तैयार हो जाते हैं ।

वस्तु की भाँति साधन की कीमत का निर्धारण भी माँग एवं पूर्ति शक्तियों द्वारा होता है । परन्तु वस्तु की कीमत-निर्धारण (Commodity Pricing) तथा साधन कीमत-निर्धारण (Factor Pricing) में कुछ महत्वपूर्ण अन्तर भी हैं जिनके कारण साधनों की कीमत निर्धारित करने के लिए पृथक् सिद्धान्त की आवश्यकता पड़ती है ।

किसी साधन की माँग में कुछ मुख्य विशेषताएँ निहित हैं:

(1) वस्तु की माँग प्रत्यक्ष माँग (Direct Demand) होती है जबकि किसी साधन की माँग अप्रत्यक्ष माँग (Indirect Demand) अथवा व्युत्पन्न माँग (Derived Demand) होती है । किसी साधन की माँग उत्पादक द्वारा इस उद्देश्य से की जाती है कि वह इस साधन के सहयोग से उत्पादन कार्य कर सके तथा ऐसी वस्तु उत्पादित कर सके जिसकी बाजार में उपभोक्ता प्रत्यक्ष माँगे करते हैं ।

दूसरे शब्दों में, किसी साधन की माँग उसकी सीमान्त उत्पादकता (Marginal Productivity) पर निर्भर करती है जबकि किसी वस्तु की माँग उसकी सीमान्त उपयोगिता (Marginal Utility) द्वारा निर्धारित होती है ।

साधन की माँग तभी उत्पन्न होती है जब उस साधन का प्रयोग करके बनाई जाने वाली वस्तु की माँग बाजार में होती है । इसी वास्तविकता के कारण साधन की माँग अप्रत्यक्ष अथवा व्युत्पन्न माँग बन जाती है ।

(2) उत्पत्ति के साधनों की माँग, संयुक्त माँग (Joint Demand) होती है क्योंकि उत्पादन क्रिया में सम्मिलित उत्पत्ति के साधनों में स्थानापन्नता (Substitutability) एवं पूरकता (Complementarity) का एक अंश विद्यमान रहता है । अतः साधनों की संयुक्त माँग को प्रदर्शित करने के लिए पृथक् माँग वक्र की आवश्यकता पड़ती है ।

(3) साधन की पूर्ति भी वस्तु की पूर्ति से भिन्न है क्योंकि किसी वस्तु की पूर्ति उसकी उत्पादन-लागत (Cost of Production) पर निर्भर करती है जबकि साधनों की पूर्ति का अर्थ अवसर लागत (Opportunity Cost) से लिया जाता है । अवसर लागत वह न्यूनतम धनराशि है जो किसी साधन विशेष को उस व्यवसाय में बनाये रखने के लिए आवश्यक होती है ।

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यदि उस साधन को इस न्यूनतम धनराशि से कम कीमत दी जायेगी तो वह साधन किसी दूसरे व्यवसाय में स्थानान्तरित हो जायेगा । इस प्रकार वही न्यूनतम धनराशि उस व्यवसाय विशेष की दृष्टि से साधन पूर्ति को निर्धारित करेगी ।

उपर्युक्त विशेषताओं के आधार पर वितरण के पृथक् सिद्धान्त की आवश्यकता न्यायोचित प्रतीत होती है ।