Here is an essay on the ‘Theories of Distribution’ for class 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘Theories of Distribution’ especially written for school and college students in Hindi language.

Essay # 1. वितरण का प्रतिष्ठित सिद्धान्त (Classical Theory of Distribution):

प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने वितरण के किसी सामान्य सिद्धान्त (General Theory) का प्रतिपादन नहीं किया किन्तु एडम स्मिथ, रिकार्डो आदि प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने ‘भूमि’ के ‘लगान’, ‘श्रम’ की ‘मजदूरी’, ‘पूँजी’ के ‘ब्याज’ तथा ‘साहस’ के ‘लाभ’ के सिद्धान्तों का पृथक्-पृथक् प्रतिपादन किया है ।

प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की विचारधारा के अनुसार राष्ट्रीय आय की वितरण प्रक्रिया में सर्वप्रथम भूमि को लगान दिया जाता है । उसके बाद क्रमशः श्रमिकों की मजदूरी तथा पूँजीपति का ब्याज एवं लाभ निर्धारित किये जाते हैं । इस प्रकार उत्पत्ति के सभी साधनों को दिये गये पुरस्कारों का योग राष्ट्रीय आय के बराबर होता है ।

रिकार्डो के अनुसार लगान एक बचत है । उनके अनुसार श्रेष्ठ अथवा अधिसीमान्त (Intramarginal) भूमियों को सीमान्त भूमि के ऊपर जो भी बचत प्राप्त होती है वह ‘लगान’ है ।

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प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के विचार में श्रमिक की मजदूरी का भुगतान ‘मजदूरी कोष’ से किया जाता है तथा श्रमिकों को केवल जीवन-निर्वाह के लिए न्यूनतम आवश्यक मजदूरी दी जाती है ।

लगान एवं मजदूरी देने के बाद आय का शेष भाग ब्याज अथवा लाभ बन जाता है ।

दोष (Demerits):

(a) प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री वितरण का कोई सामान्य सिद्धान्त प्रतिपादित नहीं कर पाये ।

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(b) ये सभी विचारधाराएँ वितरण के क्रियात्मक पहलू की उपेक्षा कर देती हैं ।

Essay # 2.  वितरण का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त (Marginal Productivity Theory of Distribution):

वितरण का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त साधनों के पारिश्रमिक का निर्धारण करता है । सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त यह बताता है कि दी हुई मान्यताओं के अन्तर्गत दीर्घकाल में किसी साधन के पुरस्कार में उसकी सीमान्त उत्पादकता के समान होने की प्रवृत्ति पायी जाती है ।

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन 19वीं शताब्दी के अन्त में जे. बी. क्लार्क (J. B. Clark), वालरस (Walras), विकस्टीड (Wickstead) आदि अर्थशास्त्रियों द्वारा किया गया । परन्तु इसे विस्तृत एवं सही रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय आधुनिक अर्थशास्त्रियों – श्रीमती जॉन रॉबिन्सन (Mrs. Joan Robinson) तथा जे. आर. हिक्स (J. R. Hicks) को जाता है ।

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क्लार्क का कथन (Clark’s Version) है कि, ”स्थिर दशाओं में, उद्यमी सहित सभी उत्पत्ति के साधन अपनी सीमान्त उत्पादकता के आधार पर पुरस्कार प्राप्त करेंगे ।”

मार्क ब्लॉग (Mark Blaug) के शब्दों में, ”सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त यह बताता है कि सन्तुलन की दशा में प्रत्येक उत्पादकीय साधन (Agent) उसकी सीमान्त उत्पादकता के आधार पर पुरस्कृत होगा ।”

इस प्रकार जे. बी. क्लार्क के अनुसार, दीर्घकाल में तथा स्थिर साधन पूर्ति एवं पूर्ण स्पर्द्धात्मक सन्तुलन की दशाओं में साधनों का मूल्य उनकी सीमान्त उत्पादकताओं द्वारा निर्धारित होता है और इसी कारण साधनों के प्रयोग की दृष्टि से सीमान्त उत्पादकता ही एक उत्पादक अथवा फर्म की अधिकतम लाभ की दशा को निर्धारित करती है ।

सिद्धान्त की मान्यताएँ (Assumptions of the Theory):

विवरण का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है:

(1) पूर्ण प्रतियोगिता (Perfect Competition):

वस्तु और साधन दोनों ही बाजारों में पूर्ण प्रतियोगिता की दशाएँ विद्यमान हैं ।

(2) साधन की समरूप इकाइयाँ (Homogeneous Unit of Factors):

साधन की सभी इकाइयाँ एकसमान तथा परस्पर पूर्ण स्थानापन्न (Perfect Substitutes) होती हैं ।

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(3) अधिकतम लाभ प्राप्ति (To Get Maximum Profit):

प्रत्येक उत्पादक अधिकतम लाभ प्राप्त करने का प्रयास करता है । उत्पादक का सन्तुलन उस बिन्दु पर निर्धारित होता है जहाँ सीमान्त आगम उत्पादकता (MRP) तथा सीमान्त मजदूरी (MW) आपस में बराबर हो जायें ।

(4) उत्पत्ति ह्रास नियम की क्रियाशीलता (Operations of Law of Decreasing Returns):

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यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि एक सीमा के बाद साधन की सीमान्त उत्पादकता क्रमशः घटती जाती है अर्थात् घटते हुए प्रतिफल का नियम क्रियाशील होता है ।

(5) दीर्घकाल (Long-Term):

यह सिद्धान्त केवल दीर्घकाल में लागू होता है क्योंकि केवल दीर्घकाल में ही साधन का पुरस्कार उसकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर होता है ।

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(6) पूर्ण रोजगार (Full Employment):

यह सिद्धान्त पूर्ण रोजगार की मान्यता पर आधारित है ।

उत्पादकता की धारणाएँ (Concepts of Productivity):

किसी उत्पत्ति के साधन की उत्पादकता का अर्थ दो सन्दर्भों में लिया जा सकता है:

(a) भौतिक उत्पादकता (Physical Productivity)

(b) आगम उत्पादकता (Revenue Productivity)

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किसी साधन की भौतिक उत्पादकता उस साधन द्वारा उत्पादित वस्तु की भौतिक मात्राओं (Physical Units) द्वारा मापी जाती है । जब इस भौतिक उत्पादकता को मुद्रा में व्यक्त कर दिया जाता है तो हमें आगम उत्पादकता प्राप्त हो जाती है ।

A. औसत भौतिक उत्पादकता (Average Physical Productivity – APP):

इसे साधन की औसत उत्पादकता (Average Productivity) द्वारा जाना जाता है ।

हम जानते हैं कि,

B. सीमान्त भौतिक उत्पादकता (Marginal Physical Productivity – MPP):

ADVERTISEMENTS:

अन्य साधनों के स्थिर रहते हुए परिवर्तनशील साधन की एक अतिरिक्त इकाई प्रयोग करने पर कुल उत्पादकता (TP) में जो वृद्धि होती है उसे उस साधन की सीमान्त उत्पादकता (Marginal Productivity) कहते हैं ।

कुल उत्पादकता में वृद्धि को जब भौतिक मात्राओं में मापा जाता है तब उसे सीमान्त भौतिक उत्पादकता (MPP) कहा जाता है । दूसरों शब्दों में, किसी साधन की एक अतिरिक्त इकाई के प्रयोग से कुल भौतिक उत्पादकता में जो वृद्धि होती है उसे उस साधन की सीमान्त भौतिक उत्पादकता (MPP) कहते हैं ।

C. औसत आगम उत्पादकता (Average Revenue Productivity – ARP):

औसत आगम उत्पादकता (ARP) को एक अन्य प्रकार से भी परिभाषित किया जा सकता है:

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ARP = APP × AR

औसत आगम उत्पादकता = औसत भौतिक उत्पादकता × औसत आगम अथवा कीमत

शाब्दिक भाषा में, औसत आगम उत्पादकता, औसत भौतिक उत्पादकता तथा वस्तु की कीमत (अर्थात् औसत आगम) के गुणनफल के बराबर होती है ।

D. सीमान्त आगम उत्पादकता (Marginal Revenue Productivity – MRP):

अन्य उत्पत्ति के साधनों के स्थिर रहने की दशा में परिवर्तनशील साधन की एक अतिरिक्त इकाई के प्रयोग से कुल आगम में जो वृद्धि होती है उसे उस साधन की सीमान्त आगम उत्पादकता (MRP) कहा जाता है ।

सीमान्त आगम उत्पादकता (MRP) की गणना निम्नांकित सूत्र द्वारा की जा सकती है:

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MRP = MPP × MR

सीमान्त आगम उत्पादकता = सीमान्त भौतिक उत्पादकता × सीमान्त आगम

शाब्दिक भाषा में, सीमान्त आगम उत्पादकता, सीमान्त भौतिक उत्पादकता तथा सीमान्त आगम के गुणनफल के बराबर होती है ।

E. सीमान्त उत्पादकता का मूल्य (Value of Marginal Productivity – VMP):

VMP = MPP × AR

सीमान्त उत्पादकता का मूल्य = सीमान्त भौतिक उत्पादकता × कीमत (अथवा औसत आगम)

अर्थात् सीमान्त उत्पादकता का मूल्य, सीमान्त भौतिक उत्पादकता तथा औसत आगम के गुणनफल के बराबर होता है ।

सिद्धान्त की व्याख्या – जे. बी. क्लार्क का विचार (Explanation of Theory – J. B. Clarks Viewpoint):

प्रो. क्लार्क के अनुसार दीर्घकालीन प्रतियोगी बाजार में स्थिर पूर्ति वाले उत्पत्ति के साधनों की कीमतें उनकी सीमान्त उत्पादकताओं द्वारा निर्धारित होती हैं । एक अतिरिक्त उत्पत्ति के साधन के प्रयोग से कुल उत्पादकता में जो वृद्धि होती है उसे उस साधन की सीमान्त उत्पादकता कहते हैं ।

एक विवेकशील उत्पादक अपनी स्थिर तथा दी हुई पूँजी के साथ श्रमिकों की उस मात्रा को रोजगार में लगायेगा कि उसका लाभ अधिकतम हो जाए । एक उद्यमी श्रमिकों की उस मात्रा का प्रयोग करेगा जहाँ श्रम की सीमान्त उत्पादकता (MPL) प्रचलित मजदूरी की दर के बराबर हो जाये, ऐसी दशा में उसका लाभ अधिकतम होगा ।

यदि प्रचलित मजदूरी दर से श्रम की सीमान्त उत्पादकता अधिक है तब उद्यमी के लिए यह हितकर होगा कि वह अतिरिक्त श्रमिकों को तब तक काम पर लगाता जाय जब तक सीमान्त उत्पादकता घटकर प्रचलित मजदूरी दर के बराबर न हो जाय । इस तथ्य की व्याख्या चित्र 1 में की गयी है ।

श्रम बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता होने के कारण OW मजदूरी की प्रचलित दर है । उद्यमी अपने लाभ को अधिकतम करने के लिए श्रम की OL मात्रा का प्रयोग करेगा क्योंकि इस श्रम मात्रा पर श्रम की सीमान्त उत्पादकता प्रचलित मजूदरी दर के बराबर है ।

पूर्ण प्रतियोगिता होने के कारण व्यक्तिगत उत्पादक अथवा फर्म बाजार में प्रचलित मजदूरी की दर को प्रभावित नहीं कर पाते । ऐसी दशा में फर्म अथवा उत्पादक का कार्य प्रचलित मजदूरी दर पर श्रमिकों की उस मात्रा का चुनाव करना है जहाँ उसे अधिकतम लाभ हो ।

प्रो. क्लार्क ने श्रम की सीमान्त उत्पादकता के प्रचलित मजदूरी दर के बराबर होने की प्रवृत्ति की व्याख्या एक ऐसे स्थैतिक समाज (Static Society) की मान्यता पर की है जहाँ सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में रोजगार के लिए उपलब्ध श्रम की कुल पूर्ति स्थिर होती है ।

दूसरे शब्दों में, श्रम की समग्र पूर्ति (Aggregate Supply of Labour) पूर्ण बेलोच होती है । अतः रोजगार ढूँढने वाले श्रमिकों की संख्या दी होने पर, श्रमिक को दी जाने वाली मजदूरी की दर, श्रम की सीमान्त इकाई के प्रयोग से उत्पादकता में होने वाली वृद्धि (अर्थात् श्रम की सीमान्त उत्पादकता) के बराबर होगी ।

दूसरे शब्दों में, प्रतियोगी श्रम बाजार में, मजदूरी दर दी गयी श्रम मात्रा की सीमान्त उत्पादकता द्वारा निर्धारित होती है । इस प्रकार श्रम का सीमान्त उत्पादकता वक्र श्रम के माँग वक्र का कार्य करता है । श्रम का माँग वक्र बायें से दायें नीचे गिरता हुआ होता है जो मजदूरी दर और श्रम की मात्रा के विपरीत सम्बन्ध को बताता है ।

प्रो. क्लार्क का विचार पूर्ण रोजगार (Full Employment) की मान्यता पर आधारित है । यदि अर्थव्यवस्था में कुछ श्रमिक बेरोजगार हैं, तो रोजगार प्राप्ति के लिए उनके मध्य होने वाली स्पर्द्धा मजदूरी दर को घटायेगी क्योंकि दिये गये स्थिर मजदूरी कोष (Wage Bill) की दशा में कम मजदूरी दर पर अधिक श्रमिकों को रोजगार दिया जा सकता है ।

इसके विपरीत, यदि मजदूरी दर श्रम की सीमान्त उत्पादकता से कम है तब उद्यमी अतिरिक्त श्रमिकों को रोजगार में लगाकर अपने लाभ को अधिक करने की चेष्टा करेंगे; उद्यमियों के मध्य अधिक श्रमिकों को रोजगार देने की स्पर्द्धा मजदूरी दर को बढ़ायेगी । इस प्रकार, सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में मजदूरी की दर उपलब्ध श्रम मात्रा की सीमान्त उत्पादकता के समान निर्धारित होती है ।

आलोचना (Criticism):

सीमान्त उत्पादकता का सिद्धान्त एक काल्पनिक सिद्धान्त है क्योंकि यह सिद्धान्त जिन मान्यताओं पर आधारित है वे वास्तविक जीवन में नहीं पायी जातीं । इसी कारण विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने, जिनमें श्रीमती रॉबिन्सन (Mrs. Robinson) तथा प्रो. हॉब्सन (Hobson) के नाम उल्लेखनीय है, इस सिद्धान्त की कटु आलोचनाएँ की हैं ।

जिनमें से प्रमुख आलोचनाएँ निम्नलिखित हैं:

1. पूर्ण प्रतियोगिता (Perfect Competition):

इस सिद्धान्त की प्रमुख मान्यता यह है कि साधन बाजार एवं वस्तु बाजार दोनों में ही पूर्ण प्रतियोगिता की दशाएँ विद्यमान हैं जबकि वास्तविक जीवन में पूर्ण प्रतियोगिता केवल एक कल्पना मात्र है (Perfect Competition is a Myth) | इसी कारण इस सिद्धान्त को अव्यावहारिक सिद्धान्त कहा जाता है ।

(a) साधन की विभिन्न इकाइयों की समरूपता (Homogeneity of Different Units of a Factor):

इस सिद्धान्त में यह माना गया है कि साधन की विभिन्न इकाइयाँ समरूप होती हैं जबकि वास्तविकता में कुछ साधनों जैसे – भूमि और श्रम की साधारणतया दो इकाइयाँ भी एक जैसी नहीं होतीं ।

(b) उत्पादन साधनों की गतिशीलता (Mobility of the Factors of Production):

यह सिद्धान्त उत्पादन साधनों की पूर्ण गतिशीलता की मान्यता पर आधारित है किन्तु वास्तविक दशाओं में कोई साधन पूर्ण गतिशील नहीं होता ।

2. किसी साधन की सीमान्त उत्पादकता को ज्ञात करना (To Isolate the Marginal Productivity of a Factor):

उत्पादन वह प्रक्रिया है जिसमें अनेक उत्पत्ति साधनों का सामूहिक सहयोग लिया जाता है । अतः किसी साधन की सीमान्त उत्पादकता को पृथक् रूप से ज्ञात करना बहुत कठिन है । इस सिद्धान्त में यह मान लिया गया है कि साधन की सीमान्त उत्पादकता को ज्ञात किया जा सकता है जबकि हॉब्सन आदि अर्थशास्त्री साधनों की सीमान्त उत्पादकताओं को अलग कर सकने पर अपनी असहमति प्रकट करते हैं ।

3. पूर्ण रोजगार (Full Employment):

यह सिद्धान्त पूर्ण रोजगार की अवास्तविक मान्यता पर आधारित है ।

4. धन का असमान वितरण (Unequal Distribution of Wealth):

इस सिद्धान्त के अनुसार, उत्पत्ति का प्रत्येक साधन अपनी सीमान्त उत्पादकता के बराबर पुरस्कार प्राप्त करता है । धनी व्यक्ति की सीमान्त उत्पादकता अधिक होती है । अतः यह सिद्धान्त समाज में धन के असमान वितरण को बढ़ावा देता है । सामाजिक एवं नैतिक आधार पर यह सिद्धान्त स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए ।

5. सामूहिक सौदेबाजी की अवहेलना (Ignores Collective Bargaining):

यह सिद्धान्त साधन की सीमान्त उत्पादकता के आधार पर प्रत्येक साधन का पुरस्कार निर्धारित करता है जबकि आधुनिक समय में श्रम संघ एक सामूहिक सौदेबाजी साधन का पुरस्कार अधिक करवाने में सफल हो जाते हैं । अतः यह सिद्धान्त सामूहिक सौदे के महत्वपूर्ण घटक की उपेक्षा कर देता है ।

6. एकपक्षीय सिद्धान्त (One-Sided Theory):

प्रो. मिल्टन फ्रेडमैन (Milton Friedman), सैम्युलसन (Samuelson) आदि अर्थशास्त्रियों का कहना है कि यह सिद्धान्त एकपक्षीय है क्योंकि इसमें साधन की पूर्ति निश्चित मान ली गयी है । केवल साधन की माँग के आधार पर यह सिद्धान्त उन कल्पनाओं पर आधारित है जो वास्तविक जीवन में नहीं पायी जाती । अतः यह सिद्धान्त एकपक्षीय एवं अवास्तविक है ।

Essay # 3. वितरण का आधुनिक सिद्धान्त (Modern Theory of Distribution):

मार्शल (Marshall), हिक्स (Hicks), फ्रेडमैन (Friedman) आदि अर्थशास्त्रियों के अनुसार प्रो. क्लार्क द्वारा प्रतिपादित सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त केवल साधन के माँग पक्ष की व्याख्या करता है और पूर्ति पक्ष की पूर्ण उपेक्षा करता है । मार्शल और हिक्स के अनुसार साधन की कीमत माँग पक्ष एवं पूर्ति पक्ष दोनों द्वारा निर्धारित की जाती है ।

मार्शल के अनुसार जिस प्रकार किसी वस्तु की कीमत माँग एवं पूर्ति शक्तियों द्वारा निर्धारित होती है ठीक उसी प्रकार साधन की कीमत में भी माँग एवं पूर्ति शक्तियों का सामूहिक सहयोग होता है ।

साधन की माँग (Demand of Factor):

किसी साधन की माँग व्युत्पन्न माँग (Derived Demand) होती है । उद्यमी किसी साधन की कितनी मात्रा की माँग करेगा यह उस साधन की सीमान्त आय उत्पादकता (MRP) पर निर्भर करता है । MRP वक्र एक व्यक्तिगत फर्म के लिए साधन का माँग वक्र होता है । चित्र 2 में विभिन्न साधन कीमतों पर साधन की माँग-मात्रा दिखायी गयी है ।

साधन की कीमत OP1 होने पर साधन की OL1 मात्रा की माँग की जा रही है । इसी प्रकार साधन की कीमत OP2 तथा OP3 होने पर साधन की क्रमशः OL2 तथा OL3 मात्राओं की माँग की जाती है किन्तु कीमत निर्धारण के लिए व्यक्तिगत फर्म द्वारा की जा रही साधन की माँग के स्थान पर हमें उस साधम की सम्पूर्ण उद्योग द्वारा की जा रही माँग को देखना होगा ।

सम्पूर्ण उद्योग की साधन माँग, उद्योग की फर्मों को व्यक्तिगत माँगों का योग होती है । साधन के कुल माँग वक्र की व्युत्पत्ति चित्र 3 में समझायी गयी है । हमने माना कि उद्योग में 100 फर्में हैं ।

OP1 साधन कीमत पर व्यक्तिगत फर्म की माँग OL1 है किन्तु इस साधन कीमत पर सम्पूर्ण उद्योग की माँग ON1 है जो 100.OL1 के बराबर है क्योंकि उद्योग की फर्मों संख्या 100 है । इसी प्रकार साधन कीमत OP2 तथा OP3 पर सम्पूर्ण उद्योग की माँग क्रमशः 100.OL2 तथा 100.OL3 होगी ।

उद्योग का माँग वक्र DD बायें से दायें नीचे गिरता हुआ होता है जिसका कारण यह है कि MRP वक्र, जिसके योग से DD वक्र मिलता है, भी एक बिन्दु के बाद बायें से दायें नीचे गिरता हुआ होता है । इसका अभिप्राय है कि घटती हुई सीमान्त उत्पादकता के नियम के अनुसार एक साधन की मात्रा बढ़ाने पर उसकी सीमान्त उत्पादकता घटती है ।

साधन की पूर्ति (Supply of Factor):

किसी साधन की पूर्ति उसकी अवसर लागत (Opportunity Cost) पर निर्भर करती है । साधन को वर्तमान व्यवसाय में वह न्यूनतम धनराशि अवश्य मिल जानी चाहिए जितनी कि उसे सर्वश्रेष्ठ वैकल्पिक प्रयोग में मिल सकती है अन्यथा वह वर्तमान व्यवसाय को छोड़ देगा ।

साधन की पूर्ति को प्रभावित करने वाले घटक हैं:

(i) साधन का पुरस्कार

(ii) साधन की गतिशीलता

(iii) साधन की शिक्षा एवं प्रशिक्षण लागत

(iv) साधन कुशलता

(v) साधन आवागमन लागत

(vi) साधन की कार्य और आराम में वरीयता

चित्र 4 में साधन का पूर्ति वक्र दिखाया गया है । चित्र में SS साधन का पूर्ति वक्र है । यह वक्र स्पष्ट करता है कि साधन कीमत बढ़ने पर साधन की पूर्ति भी बढ़ती है और साधन कीमत घटने पर साधन पूर्ति भी घटती है ।

जब साधन कीमत OP से बढ़कर OP1 हो जाती है तब साधन की पूर्ति बढ़कर ON1 हो जाती है । इसी प्रकार जब साधन कीमत घटकर OP2 रह जाती है तब साधन की पूर्ति भी घटकर ON2 रह जाती है ।

साधन कीमत निर्धारण : माँग-पूर्ति सन्तुलन (Factor Price Determination : Demand Supply Equilibrium):

चित्र 5 में माँग एवं पूर्ति शक्तियों द्वारा साधन की कीमत निर्धारण प्रक्रिया समझायी गयी है । माँग एवं पूर्ति शक्तियाँ परस्पर अन्तर्क्रिया हेतु बिन्दु E पर सन्तुलित होती हैं जहाँ साधन की OP कीमत पर OL माँग की जा रही है । यदि साधन की कीमत OP1 है, तब इस कीमत पर ab अतिरेक पूर्ति है जो साधन की कीमत को घटाकर OP तक ले आयेगी ।

इसके विपरीत, यदि साधन की कीमत OP2 है, तब cd अतिरेक माँग है जो साधन कीमत को बढ़ाकर OP तक ले जायेगी । इस प्रकार अन्तिम सन्तुलन की दशा में साधन की OP कीमत निर्धारित होती है ।

साधन बाजार में फर्म का अल्पकालीन सन्तुलन (Short-Term Equilibrium of Firm in Factor Market):

साधन की कीमत उसकी माँग और पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है । परन्तु यह कीमत साधन की सीमान्त आय उत्पादकता (MRP) के बराबर होती है । इस तथ्य को चित्र 6 में देखा जा सकता है ।

चित्र में साधन OP निर्धारित होती है । उद्योग द्वारा निर्धारित साधन कीमत OP फर्म दिया हुआ मानकर साधन की उतनी मात्राओं का प्रयोग करेगी जिनके लिए उनकी सीमान्त आय उत्पादकता (MRP) साधन कीमत OP के बराबर हो जाए ।

अल्पकाल में फर्म को साधन बाजार में तीनों स्थितियों – असामान्य लाभ (Abnormal Profit), सामान्य लाभ (Normal Profit) तथा हानि (Loss) का सामना करना पड़ सकता है ।

i. असामान्य लाभ (Abnormal Profit):

(देखें चित्र 6) सन्तुलन बिन्दु E पर,

साधन कीमत = सीमान्त आगम उत्पादकता

OP = EN

औसत साधन लागत = EN

औसत आगम उत्पादकता = RN

प्रति इकाई लाभ = RE

कुल लाभ = TREP क्षेत्र

ii. सामान्य लाभ (Normal Profit):

(चित्र 7) सन्तुलन बिन्दु E पर,

औसत साधन लागत = औसत आगम उत्पादकता

AFC = ARP = OP (या EL)

जो सामान्य लाभ को बताती है ।

iii. हानि (Loss):

(चित्र 8) सन्तुलन बिन्दु E पर,

औसत साधन लागत (AFC) = EL

औसत आगम उत्पादकता (ARP) = RL

प्रति इकाई हानि = ER

कुल हानि = PERT क्षेत्र

साधन बाजार में फर्म का दीर्घकालीन सन्तुलन (Long-Term Equilibrium of Firm in Factor Market):

दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता में केवल एक ही सम्भावना है कि फर्म को केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त हो । यदि दीर्घकाल में उद्योग की किसी फर्म को असामान्य लाभ मिलता है तो उद्योगों में अन्य फर्में प्रवेश कर जायेंगी जिससे वस्तु की कीमत गिरेगी तथा लागत बढ़ेगी तथा असामान्य लाभ सामान्य लाभ में परिवर्तित हो जायेगी । इसके विपरीत हानि की दशा में कुछ फर्में उद्योग से बाहर चली जायेंगी जिससे हानि सामान्य लाभ में बदल जायेगी ।

अतः फर्म के दीर्घकालीन सन्तुलन की दशा में,

साधन कीमत = ARP = MRP = AFC = MFC

चित्र 9 में साधन बाजार में फर्म के दीर्घकालीन सन्तुलन को दिखाया गया है । चित्र में सामान्य लाभ की स्थिति प्रदर्शित की गयी है ।

क्योंकि, सन्तुलन बिन्दु E पर,

साधन कीमत = AFC = ARP

अर्थात् शून्य लाभ की दशा है ।

संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि उद्योग का पूर्ण सन्तुलन उस बिन्दु पर होगा जहाँ श्रम की औसत उत्पादकता और औसत मजदूरी भी समान हो । यह स्थिति केवल उस दशा में होगी जबकि साधन बाजार और उसके द्वारा उत्पादित वस्तु बाजार दोनों में पूर्ण प्रतियोगिता हो ।